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पुराने धर्म-गुरु और उनकी शिष्य - परम्परा
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कर्मा दोर्जे ने अपने सामने एक साफ स्वच्छ रितोद् ( आश्रम ) देखा। उसके मन में इस बात का रत्ती भर भी सन्देह न रह गया कि तौवों का उसके सामने प्रकट होने का साहस तो न हो सका, लेकिन उन्होंने इस दैवी ढंग से उसे एक योग्य गुरु के पास पहुँचा दिया है। अवश्य ही इस रितोद् में जो लामा रहता है वही उसका गुरु होने की क्षमता रखता है
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यहीं पर यह बता देना ठीक होगा कि इस रिताद् में और कोई नहीं; एक साधारण, सभ्य समाज से सम्बन्ध रखनेवाले बूढ़े लामा रहते थे । वे स्वभाव से एकान्तप्रिय थे और बौद्ध-धर्मग्रन्थों के अनुसार 'ग्राम से नातिदूर और नातिसमीप' एक छोटा सा घर बनाकर अपने दो एक शिष्यों के साथ अलग रहते थे । उनके पास उनकी थोड़ी-बहुत पुस्तकें थीं। उनका जीवन साधारण सा था। जादूगरी की मन्त्र - विद्या और ऐन्द्रजालिक नालजोर्पाश्रों से उनका किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं था ।
कर्मा दोर्ज सीधा रितोद् में पहुँचा । उसने बाहर हवा में टहलते हुए कुशोग तान्सम्येस को बड़ी श्रद्धा से साष्टांग प्रणाम किया। फिर बड़े ही विनम्र स्वर में उसने उनसे अपने शिष्य बना लेने की प्रार्थना की।
वृद्ध लामा ने उसे अपनी सब कथा - क्यिलकहोर की बात और 'देवी' बाढ़ का हाल-ज्यों की त्यों कह लेने दी। पर कर्मा के बार-बार यह कहने पर कि वह "देवी" ढङ्ग पर उनके श्री चरणों के समीप तक पहुँचाया गया है, उन्होंने उसे यह बतला देना आवश्यक समझा कि वह जगह जहाँ वह बहते बहते पहुँचकर रुका था, उनके “श्री चरणों" से काफ़ी दूरी पर थी। उन्होंने कर्मा दोर्ज से उसके इस प्रकार नंगे बदन रहने की वजह भी पूछी ।
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