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[ ३६ ] तरह से ज्ञाता हो, संसार के प्रांरभादिक कितनेक कार्यों से निवृत्ति (त्याग) और इच्छानुसार व्रत नियम ग्रहण कर, उनका पूर्णतया पालन करना अहिंसा, सत्य अचौर्य, स्वदारा-संतोष, परिग्रह,-दिशापरिमाण, उपभोग परिभोग की मर्यादा, अनर्थ दंड का त्याग, समायिक, देशावकाशक पौषध, और अतिथि संविभाग इस प्रकार द्वादशव्रत की मर्यादा करे और तन, मन, धन से जैन शासन का प्रचार एवं प्रभावना करे। संघ, स्वधर्मियों से वात्सल्यता, पजा प्रभावना, तीर्थ यात्रा, जीर्ण मन्दिरों का उद्धार और आवश्यक्ता होने पर नये मन्दिरों का निर्माण करना इत्यादि । राजन् ! गृहस्थ धर्म ऐसा धर्म है कि इसको राजा महाराजा और चक्रवर्ती जैसे भाग्यशाली और साधारण व्यक्तिभीपालन कर सक्त हैं क्योंकि इन के नियम व्रत इच्छानुसार ही होते हैं
(३) सर्व व्रती-यह साधु धर्म है इसमें संसारी कार्योका किसी प्रकार का अपवाद एवंछट नहीं है। यह सर्व प्रकार से त्यागियों का मार्ग है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निस्पृहता का सर्व प्रकार पालन करना ही मुनिव्रत है। इतना ही नहीं पर जन कल्याण के निमित्त अपना जीवन अर्पण करने में भी पीछे नहीं हटते हैं अर्थात् स्व-कल्याण के साथ पर-कल्याण करने में वे सदैव प्रयत्न किया करते हैं।
हे भूपति ? पूर्वोक्त तीन रास्तों में से किसी एक को स्वीकार कर उसका ठीक और पूर्ण पालन करने से ही जीवों का कल्याण होता है इत्यादि सूरिश्वरजी ने भिन्न भिन्न प्रकार से एक ही दृष्टि बिन्दु-लक्ष्य में रख
कर धर्म देशना दी जिनका प्रभाव जनता पर काफी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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