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[ ३० ] कि ऐसे मिथ्याक्षेप करने वाले जैन सिद्धान्तों को न तो कभी ध्यान लगा के सुनते पढ़ते हैं और न कभी विद्वानों के पास जाकर इस बात का निर्णय ही करते हैं इस लिये मैं आज आप लोगों को यह बतलाना चाहता हूँ कि पूर्वोक्त दलीलों के विषयों में जैनों की क्या मान्यता है:
(१) स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, इहलोक, परलोक अर्थात् भव भवान्तर और शुभ क्रिया का शुभ फल, अशुभक्रिया का अशुभ फल इन बातों को नहीं मानने वाला ही नास्तिक होता है परन्तु जैन सिद्धान्त तो इन बातों को स्वीकार ही नहीं बल्कि जोर देकर प्रतिपादन करता है फिर नास्तिक कहना यह द्वेष नहीं तो और क्या है ? अर्थात् जैन धर्म आस्तिकों का ही धर्म है।
(२) ईश्वर-निरंजन निराकार सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ अजर अमर अक्षय परमब्रह्म और सर्व कर्मोपाधि मुक्त को ही जैन ईश्वर मानते हैं पर जो लीला क्रीडा विलास संयुक्त हो पुनः पुनः अवतार धारण करते हों ऐसों को जैन कदापि ईश्वर नहीं मानते हैं ईश्वर वही है जो सच्चिदानन्द हो अर्थात् स्वगुण में रमण कर रहा हो और ऐसे ईश्वर को ही जैन ईश्वर मानते हैं।
(३) ईश्वर सृष्टि का कर्त्ता नहीं है । भला सोचो तो सही सांसारिक बंधनों और इस माया जाल से छूटने के लिए ईश्वर से प्रार्थना की जाती है और जब वे स्वयं हो आत्मज्ञान में सुखो नहीं रहकर इस गोरखधन्धे में अपने समय को पूरा करते हैं तो वे हमें इस संसार सागर से कैसे पार उतार सकते हैं।
जब यह प्राणी अपने ही कर्मानुसार चोर कोतवाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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