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Frilastrichaimidi.
1911
शुभ-भावना श्रीमान् श्रोसवालों ! पोरवालों ! और श्रीमालों !
आज आप अपनी आँखों से देख रहे हैं कि भारत के अन्यान्य सम्प्रदाय अपने-अपने प्राचीन एवं अर्वाचीन परम-उपकारी पुरुषों के गुण स्मरणार्थ किस उत्साह से जयन्तिएँ मना रहे हैं, परन्तु आप अपने परम-उपकारी महापुरुषों को कैसे भूल गये हो ? क्या आपकी पतनाऽवस्था का यही तो मुख्य कारण नहीं है । ? कारण आपके पूर्वजों को जिन महापुरुषों ने मांस, मदिरादि कुव्यसनों का त्याग कराकर, जैन-धर्म में दीक्षित कर, उन्हें स्वर्ग मोक्ष का अधिकारी बनाया, आप उनकी सन्तान कहाते हुए भी उन महात्माओं के नाम तक को भी एकदम से भूल बैठे, क्या यह कम दुःख की बात है ? ।
महाशयों! चाहे आप सैंकड़ों मण्डल स्थापित करें, सहस्रों सभा-समितिएँ भरें एवं अनेकों सम्मेलन-महा-सम्मेलन इकडे करें, परन्तु आप जब तक अपने उपकारी पुरुषों के साथ किये गए कृतघ्नता के वनपाप से अपने आपको मुक्त नहीं करेंगे तब तक आपके किसी भी प्रयत्न में सफलता मिलना नितान्त असंभव है।
जैन समाज के नर-रत्नों! अतः अब भी आपके लिए समय है। आप उठो, जागो और कर्त्तव्यक्षेत्र में श्राओ, मतभेद एवं विचार-भेद भूलकर, अपने परमोपकारी, ओसवाल समाज के संस्थापक आद्याचार्य
श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज
जयन्ति-महोत्सव
का
मनाकर भिन्न-भिन्न विभागों में विभक्त शक्ति तन्तुओं का पुनः
संगठन कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़ो, विश्वास रक्खो आपकी उन्नति सापही के हाथों से होना संभव है। 'ज्ञानसुन्दर'
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