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कमल मुख प्रफुल्लित होगए, लोगों की अन्तरात्मा से सहसा यही ध्वनि निकलने लगी कि,
'लोकैः कथितं श्रेोष्टसुतो नूतने जन्माने श्रागत:
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धन्य है परोपकारी गुरुदेवको और धन्य है आपकी अपार शक्ति को । श्रेष्टिपुत्र के जीवित होने के चमत्कार को देखकर राजा, मंत्री और सब जनता जैन धर्म एवम् आचार्य श्री की मुक्तकंठ से भूरि भूरि प्रशंसा करती हुई कोटिशः धन्यवाद देने लगी और अपने मनहीमन अपनी निष्ठुरता पर पश्चात्ताप करती हुई कहने लगी कि धिक्कार है अपनी अज्ञानता को, कि ऐसे महान् चमत्कारी, विश्वोपकारी, शान्तमूर्त्ति महात्मा के जो अपने यहाँ चिरकाल से विराजमान होने पर भी इनके परम पूजनीय चरणकमलों की सेवा का लाभ नहीं ले सके । अहो ! खेद है कि अपने जैसे अभागे कौन होंगे ? इत्यादि । फिर उस समूह से किसी व्यक्ति ने मधुर शब्दों से कहा कि भाई यह तो संसार की स्वार्थवृत्ति है एवं चमत्कार को नमस्कार हुआ ही करता है पर अपने को इनके आत्मिक गुणों की ओर विशेष लक्ष्य देना चाहिए ।
राजा और सचित्र ने आचार्यदेव के अतुलित उपकार से प्रेरित हो मन ही मन अपने हृदयतंत्री के तारों की झनकार में महात्मा श्री के गुणों की प्रशंसा करने में कुछ भी कमी न रक्खी और अपनी कृतज्ञता का परिचय देते हुए खजाँचियों से द्रव्य मंगवाकर - श्रनेकमणिमुक्ताफलसुवर्णवस्त्रादि श्रानीय,
' गुरोर भगवन् ! गृह्णातु "
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