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[ २० ] खाना पीना छोड़ कर वैद्य, हकीम, यंत्र, मन्त्र, तंत्रवादियों की शोध में परिभ्रमण करने लगे।*
"अनेके मंत्रवादिनः अाहता परं न कोऽपि समर्थस्तत्र"
आगन्तुक मंत्र तंत्र वादियों ने नाना उपचार किए किन्तु सब के सब उस कार्य में असफल हुए। अन्त में उन्होंने यही कहा कि
"अयं मृत: दाहो दीयता" मन्त्रवादियों के कथनानुसार कि राजजामाता मर गये हैं, इनका अग्नि संस्कार करने में अब बिलम्ब नहीं करना चाहिए, यह सुनकर राजकन्या
"तस्य स्त्री काष्टभक्षणे स्मशाने अायाता"
पति वियोग के घोर दुःख से दुःखी हो विकराल एवं करुणाजनक रूप धारण कर अश्वारूढ़ हो अपने पतिदेव के साथ सती होने को उद्यत होगई यह उस काल की एक प्रथा थी कि मृत पति के साथ अपने सतीत्व की रक्षा के लिए उसी के साथ चिता में भस्म होजाना।
मन्त्रीपुत्र त्रिलोक्यसिंह की मृत्युसमझ,लाश को एक विशाल विमान में प्रारुढ करवा के राजा, मन्त्री और
के कितनेक अज्ञलोग यह कह देते हैं कि आचार्य श्री ने रुई का सर्प बनाकर राजपुत्र को कटवाया था, किन्तु यह सर्वथा असत्य भ्रम है। चतुर्दश पूर्वधर आचार्य का ऐसा करना सर्वथा असंभव है और न किसी प्राचीन ग्रन्थ व पट्टावलि में ऐसा लिखा है। इसलिए ऐसी गप्पों को भाट भोजकों की मन कल्पना ही सममनी चाहिये ।
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