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[ १९ ] पर किस प्रकार पड़ता है ? यह तप बाह्याडम्बरी तप नहीं था किन्तु अन्तरात्माप्रेरित स्वपरकल्याण की भावना से ओतप्रोत, शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल तप था । वाममार्गियों को इस बात का भय तो पहले से ही था कि यह जैन सेवडा यहाँ आये हैं कहीं हमारी पोलें न खोलदें। इस कारण वे अपनी दलबन्दी करने में खूब प्रयत्न कर रहे थे,साथ में जैनधर्म व जैन साधुओं की बुराइयां करने में भी कसर नहीं रखते थे फिर भी समय तो अपना काम किया ही करता है।
उत्पलदेव महाराज की महिषी जालपादेवी रानी की सौभाग्य सुन्दरी नामक राजकुमारी पाणिग्रहण के योग्य हो जाने के कारण, राजा ने महिषी की सम्मति लेकर मंत्री उहड़देव के पुत्र त्रिलोक्यसिंह के साथ कन्या का पाणिग्रहण कर दिया। कुछ काल पश्चात् एकदिवस निशा में जब दम्पती आनन्दपूर्वक सुखशय्या में निद्रा देवी के आश्रित थे, अकस्मात् एक विषधर सर्प ने आकर मंत्रीपुत्र को डस लिया ।
"मंत्रीश्वर-ऊहड़-सुतः भुजंगेन दष्ट": शीघ्र ही उसके सम्पूर्ण शरीर में विष व्याप्त हो गया। जब प्रातः काल राजकन्या जागृत हुई और अपने पतिदेवके शरीर को अवलोकन किया तो सहसा हाहाकार और चीत्कारपूर्ण करुण नाद कर रुदन करने लगो। इस दशा में वहां जनसमुदाय दास दासी एकत्रित हो गये । जैसे ही यह समाचार राजा और प्रधान को मिला तो वे भी शीघ्र वहां आकर उपस्थित हुए। क्रमशः यह शोकमय वृत्तान्त सम्पूर्ण नगर में फैल गया, नगरवासी
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