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प्रमाणों से सिद्ध होता है कि बुद्ध का घराना जैन था और बुद्ध ने प्रारम्भ में जैन दीक्षा स्वीकार की थी।
बुद्ध का समय ठीक केशी श्रमणाचार्य के शासन का ही समय था, बुद्ध, भगवान् महावीर के समकालीन हुए थे / भगवान् महावीर की आयु ७२ वर्ष की थी, जब महात्मा बुद्ध की आयु ८० वर्ष की थी । महावीर से दो वर्ष पूर्व बुद्ध का जन्म हुआ और महावीर के निर्वाण बाद छः वर्ष पश्चात् बुद्ध का देहान्त हुआ । इस भांति वीर की तरह बुद्ध का भी अहिंसात्मक उपदेश और यज्ञहिंसा के प्रति घोर विरोध था ।
इस प्रकार के प्रमाणों में सब को एक ही ध्वनि में स्वीकार करना पड़ेगा कि यदि भगवान् महावीर का हिंसा के विषय में इतना प्रयत्न नहीं होता तो न जाने संसार की क्या दशा होती - प्रसंगवश इतना कह कर अब हम मूल विषय पर आते हैं ।
आचार्य केशी श्रमण के पट्ट पर आचार्य स्वयंप्रभसूरि हुए, जिन्होंने मरुधर में शुभ पदार्पण किया और श्रीमाल नगर के राजा, क्षत्रियों, एवं नागरिकों के ६०,००० कुटम्बों को जैन धर्मोपासक बनाया वे आज भी श्रीमाल नाम से प्रसिद्ध हैं । पूर्वकाल में महर्षियों की अन्तरात्मा में धर्मप्रचार की कैसी उत्कट भावना रहती थी । वे एकआध कार्य करके ही मौन नहीं बैठ जाते
* " तच्छिष्याः समजायन्त, श्री स्वयंप्रभसूरयः । विहरन्तः क्रमेणैयुः श्रीश्रीमालं कदापि ते ॥
तस्थुस्ते तत्पुरोद्याने मासकल्पं उपास्यमानाः सततं भव्यै
मुनीश्वराः । र्भवतरुच्छिदे ||
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