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________________ [ ४६ ] में जाप्रति की लहर दिखाई देती है। भारतवर्ष भी नवीन चेतना की स्फूर्ति से स्पन्दित हो रहा था। देश की प्रत्येक जाति और प्रत्येक सम्प्रदाय में यह चेतना दृष्टिगोचर हो रही है। इस विश्वजनीन चेतना, इस व्यापक जाग्रति से उदासीन रहना किसी भी जाति, सम्प्रदाय अथवा देश के लिये घातक है। ___सजनों! मैं खभाव से ही आशावादी (Optimist ) हूं। मगर मैं स्वीकार करूंगा कि जीवन के इस अन्तिम भाग में पिछले कुछ दिनों से अपने समाज को अवस्था देख कर मुझे निराशा होने लगी थी। देशके अन्य समाजों और अन्य जातियों को अपनाअपना संगठन करते देख.कर, जीवन को दौड़ में अग्रसर होते देखकर, कभी कभी अपने समाज के भविष्य के विषय में चिन्ता होने लगती थी। परन्तु आज की इस महासभा, आज के इस वृहत् बन्धु समुदाय को देख कर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि मेरी चिन्तायें निर्मूल थीं। हमारे समाज की चेतना शक्ति विलुप्त नहीं हुई है। समाज परिस्थितियों से बिलकुल बेखबर नहीं है। वरन् वह उनका सामना करने के लिये किसी अन्य समाज से पिछड़ा रहना नहीं चाहता। वह अन्य जातियों और सम्प्रदायों में, देश में तथा संसार में अपना उचित और सम्मानपूर्ण स्थान ग्रहण करने के लिये उद्यत है। हमारा समाज स्वभाव से ही धार्मिक वृत्ति का है। परन्तु बहुधा लोग धर्म और समाज के अन्तर को न पहचान कर, दोनों को एक ही मान लेते हैं । जिस से हम लोग अपने मार्ग से च्युत हो कर भटक जाते हैं। धर्म सत्य है, नित्य है, कल्याणकारी है। परन्तु उसका सम्बन्ध मनुष्य को आत्मा से है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने पूर्वजन्मार्जित कर्मानुसार पल, बुद्धि, आत्मविश्वास और धर्म को विभिन्न मात्रा में प्राप्त करता है। समाज इन्हीं व्यक्तियों के वाह्यसंगठन का नाम है। अपने नित्यप्रति के सांसारिक जीवन के निर्वाह के लिये मनुष्य एक समाज बन कर रहते हैं और सुविधा के लिये देश और काल की आवश्यकतानसार आचार-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, विवाह-शादी, आदि बातों के सम्बन्ध में जो नियम बना लेते हैं, वही सामाजिक नियमों के नाम से परिचित है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इन नियमों का पालन करना पड़ता है। समय के परिवर्तन के साथसाथ कभी कभी ये नियम और रूढियां विकृत हो जाती हैं, उन की उपयोगिता में अन्तर पड़ जाता है। और वे उन्नति और विकाश के मार्ग में अड़चन डाल कर बाधा उत्पन्न करने लगती हैं । उस समय उन में नवीन परिस्थितियों और नवीन आवश्यकताओं के अनुसार हेर-फेर और परिवर्तन किये जाते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन सदा से होते आये हैं और होते रहेंगे, इस प्रकार के परिवर्तन से मुंह मोड़ना मृत्यु के मुख में जाना है। 'परिवत्तन या विनाश (Change or die) प्राकृति का नियम है। हमारे धर्म में वाह्य जगत को परिवर्तनशील माना गया है, अतः जो परिवर्तनशील है, उस के हेर-फेर से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। धर्म और समाज का आधारभूत अन्तर न समझने के कारण हमारे धर्मप्राण भाइयों में यह भ्रमपूर्ण धारणा फैली है, कि सामाजिक बातों में हस्तक्षेप करना, धर्म पर कुठाराघात करना है। मैं अपने श्रद्धावान धार्मिक बन्धुओं से विनम्र प्रार्थना करूँगा कि वे इन वाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034568
Book TitleOswal Maha Sammelan Pratham Adhiveshan Ajmer Ki Report
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRai Sahab Krushnalal Bafna
PublisherRai Sahab Krushnalal Bafna
Publication Year1933
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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