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________________ पूउ श्र मूज्य अ भरे उ पू श ध 2 आम चि स्वावि (११२) नरपतिजयचर्याअथ वक्रचंद्रचक्रम्॥ ॥क्रचंद्रचक्रम् ॥ भ कृ रो वक्रंदुसदृशं चक्रं त्रित्रिशूलसमन्वितम्॥ मध्ये द्वादशभान्यत्र षट् पृष्ठे नव शूलक ॥१॥ मध्यशूलस्य मध्यस्थं शशभृक्षमादितः ॥ सव्येन गणयेच्चक्रं यावद्योधस्य नामभम् ॥ २ ॥ श्रृंगे मृत्युर्जयो मध्ये पृष्ठे भंगो महाहवे ॥ चातुरंगे कवौ कोटे इंद्वयुद्धे विशेषतः ॥३॥ इति स्वरोदये वक्रचंद्रचक्रम् ॥ अथ वक्रचंद्रचक्रम् । व–दुसदृशोत ॥ १॥ २ ॥३॥ अथ चतुरंगसूर्यचक्रम् ॥ रेखात्रयं त्रिशूलाग्रं तिर्यग्रेखाषडन्वितम् ॥ एकैककोणगास्तत्र मध्यादौ भानुभादितः ॥ १ ॥ अधस्त्रिके भवेन्मृत्युश्चतुर्भिः कोणगैः शुभम् ॥ मध्यमा द्वादशा प्रोक्ता नवक्ष भंगकारकम् ॥ २॥ इति चतुरंगसूर्यचक्रम् ॥ अथ चतुरंगसूर्यचक्रम् । रेखात्रयामति ॥ १॥ २ ॥ इति चतुरंगसूर्यचक्रम् । ॥ मातृकाचक्रम् ॥ अ आ इ ई उ ऊ ऋ * ल ल ए ऐ ओ औ अं | अथ प्रथममातृकाचक्रम् ॥ षोडशोर्ध्वगता रेखाः पंचरेखाश्च तिर्यगाः॥ कोष्ठकानां भवेत्षष्टिस्तत्रांकाक्षरयोजना ॥ १ ॥ पूर्णिमादिविलोमांकान् लिखेत्प्रतिपदांतकान्॥तदधो मातृकान् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034565
Book TitleNarpati Jay Charya Swaroday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarpati Kavi, Harivansh Kavi
PublisherKshemraj Krishnadas
Publication Year1856
Total Pages294
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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