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मारवाड़ का इतिहास
इसी वर्ष महाराजा जसवन्तसिंहजी ने, अपने स्वर्गवासी पिता ( महाराजा तखतसिंहजी ) की अस्थियों को गङ्गा में प्रवाहित करने के लिये दल-बल सहित, हरद्वार की यात्रा की और वहां से आप कलकत्ते जाकर, पौष वदि १३ ( ई० स० १८७५ की ५ जनवरी ) को, वायसराय से मिले । इसके बाद माघ सुदि १ (१४ फरवरी) को आप वापस जोधपुर लौट आए । इस यात्रा में आप गया भी गए थे । ___महाराजा को अपनी प्रजा और अपने सरदारों की शिक्षा का भी पूरा खयाल था । इसीसे सरदारों और राज-वंश के बालकों की शिक्षा के लिये ३६,००० रुपये खर्चकर अजमेर के मेयो कालेज में एक बोर्डिङ्ग-हाउस ( छात्रावास ) बनवाया गया, और उक्त कालेज के लिये मकराने ( संगमरमर ) का पत्थर मुफ़्त दिया गया।
वि० सं० १९३२ ( ई० स० १८७५ ) में भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड नॉर्थब्रुक जोधपुर आए । उस समय महाराज ने अपने सरदारों आदि को निमंत्रित कर बड़ा उत्सव किया ।
इसी वर्ष सर्दारों आदि के लड़कों की तालीम के लिये जोधपुर में ठाकुरों के स्कूल की स्थापना की गई ।।
इसके बाद वि० सं० १९३२ की पौष बदि ११ ( ई० स० १८७५ की २३ दिसम्बर ) को उस समय के प्रिंस ऑफ वेल्स हिन्दुस्थान में आए । इस पर महाराज भी अन्य मुख्य-मुख्य नरेशों की तरह लॉर्ड नॉर्थब्रुक के निमंत्रण पर कलकत्ते गए। वहां पर यथानियम महाराजा ने प्रिंस ऑफ़ वेल्स की और उसने इनकी अभ्यर्थना की। इसी वर्ष की पौष सुदि ५ (ई० स० १८७६ की १ जनवरी) को प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत में आने के उपलक्ष में कलकत्ते के किले में एक दरबार किया गया । वहां पर प्रिंस
ऑफ़ वेल्म ने स्वयं अपने हाथ से महाराज को जी. सी. एस. आइ. के पदक से भूषित किया, और भारत सरकार के 'वैदेशिक-सचिव' (फॉरिन सेक्रेटरी) ने खड़े होकर महाराज के 'ग्रान्ड कमान्डर ऑफ दि स्टार ऑफ़ इन्डिया' बनाए जाने की घोषणा की।
१. इस यात्रा में करीब तेतीस हज़ार रुपया खर्च हुआ था। २. इसके उपलक्ष में नगर में जो रौशनी की गई थी, उसे आज भी यहां के लोग 'लाट___ दिवाली' के नाम से स्मरण किया करते हैं । इसी अवसर पर महाराज ने शहर के प्रबन्ध
से प्रसन्न होकर रावराजा मोतीसिंह को 'बहादुर' का खिताब दिया । ३. यही बाद में बादशाह ऐडवर्ड सप्तम के नाम से ब्रिटिश राज-सिंहासन पर बैठे थे।
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