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महाराजा तखतसिंहजी की मँगसिर सुदि १० ( ई० स०. १८४३ की १ दिसंबर ) को जोधपुर में इनका राज्याभिषेक हुआ।
इसी वर्ष की फागुन सुदि ( ई० स० १८४४ की फ़रवरी ) में कोटे के महाराव रामसिंहजी इनसे मिलने को जोधपुर आए । इस पर महाराज ने भी उनका यथोचित सत्कार किया ।
यद्यपि महाराजा तखतसिंहजी ने राज्य पर बैठते ही नाथों के उपद्रव को दबा दिया, तथापि सरदारों का उपद्रव शांत न होसका ।
इसी वर्ष ( वि० सं० १९०० ई० स० १८४३ में ) गवर्नमेंट के सिंध विजय कर लेने पर जोधपुर की तरफ़ से उमरकोट का दावा पेश किया गया । इस पर वि० सं० १९०४ (ई० स० १८४७) में गवर्नमैन्ट ने उसकी एवज में जोधपुर-राज्य
वि० सं० १६०० की कार्तिक वदि १३ को विवाह आदि में चारणों, भाटों और नक्कारचियों को दिए जाने वाले दान के नियम बनाए गए और कन्याओं को न मारने की हिदायत भी की गई । ये नियम पहले वि० सं० १८६६ में ही निश्चित कर लिए गए थे ।
१. इसी बीच धौंकलसिंह ने भी जोधपुर की गद्दी के लिये बहुत कुछ कोशिश की, परंतु
कर्नल सदरलैंड के आगे उसकी एक न चली । महाराजा तखतसिंहजी ने अपने राजतिलक के समय पूर्व-प्रथानुसार मंदियाड़ के बारठ चैनसिंह को 'लाख-पसाव' दिया ।
२. वि० सं० १६०० की फागुन सुदि ३ के एक पत्र से ज्ञात होता है कि महाराज ने, देश __ में व्यापारियों पर लगने वाले 'डंड-किराड' को माफकर व्यापार को उन्नत करने का
प्रबन्ध किया । ३. वि० सं० १८६६ (ई० स० १८३६ ) में महाराजा मानसिंहजी ने बग़ावत करनेवाले
कई सरदारों की जागीरें शीघ्र ही लौटा देने का वादा किया था। परन्तु उनके स्वर्गवास के बाद महाराजा तखतसिंहजी ने उस पर ध्यान नहीं दिया । उलटा कुछ सरदारों को दी गई जागीरें वापिस छीन ली । इससे वे सरदार मारवाड़ में लूट-मारकर उपद्रव
मचाने लगे। ४. यह प्रदेश वि० सं० १८३६ ( ई० स० १७८२ ) में जोधपुर के अधिकार में आगया
था । परन्तु वि० सं० १८७० ( ई० स० १८१३ ) में इसे फिर से सिन्ध के टालपुरा अमीरों ने दबा लिया। इसलिये गवर्नमैन्ट ने पहले तो सिन्ध-विजय कर लेने पर उक्त प्रदेश महाराज को लौटा देने का वादा कर लिया था। परन्तु अन्त में उमरकोट के किले को उधर की सीमा की रक्षा के लिये उपयोगी समझ इसकी एवज़ में (जोधपुर महाराज ) को १०,००० रुपये सालाना देना निश्चित किया ।
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