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महाराजा मानसिंहजी इसी वर्ष मुहता साहिबचंद ने सिरोही से चढ़े हुए दण्ड के रुपये वसूल करने के लिये चढ़ाई कर वहाँ के भीतरोट प्रान्त को लूटा ।
इसके बाद ही महाराज ने मौनधारण कर राज्य कार्य से पूरी उदसीनता ग्रहण करली । यह देख मुहता अखैचंद ने प्रायस देवनाथ के छोटे भाई यस भीमनाथ आदि मुख्य-मुख्य पुरुषों को मिलाकर राजकुमार छत्रसिंहजी को राज्य-प्रबन्ध सौंप देने का षड्यंत्र शुरू किया । उसी की प्रेरणा से भीमनाथ ने स्वयं महाराज से भी इस बात की आज्ञा प्राप्त कर लेने की कोशिश की । परन्तु इन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया । अन्त में पड्यंत्रकारियों ने वि० सं० १८७४ की वैशाख वदि ३ ( ई० स० १८१७ की ४ अप्रेल ) को सिंघी गुलराज को क़ैद कर मरवा डाला; और वैशाख सुदि ३
बाद में जब वि० सं० १८७४ ( ई० स० १८१७ ) में राज्य का अधिकार महाराजकुमार छत्रसिंहजी के हाथ में चला गया, तब सिंघी चैनकरण को काराणा के ठाकुर श्यामकरण की हवेली में शरण लेनी पड़ी । परन्तु फिर भी दूसरे सरदार ठाकुर को इसे ( चैनकरण को ) छत्रसिंहजी को सौंप देने के लिये दबाने लगे । अन्त में ठाकुर के सहमत होजाने पर महाराजकुमार छत्रसिंहजी स्वयं जाकर उसे काणाणा की हवेली से ले आए और मरवा डाला । इस प्रकार सरदारों ने उससे अपना बदला लिया ।
१. सिरोही के इतिहास में लिखा है कि जोधपुर वालों की इस लूट को देखकर महाराव उदयभाणजी ने भी मारवाड़ के गांवों को लूटने का प्रबन्ध किया । इसकी सूचना मिलते ही महाराजा मानसिंहजी ने साहित्रचन्द को फिर से सिरोही को लूटने की आज्ञा दी । उसके इसवार के हमले में, जो वि० सं० १८७४ की माघ दि ८ ( ई० स० १८१८ की ३० जनवरी) को हुआ था, महाराव को सिरोही छोड़कर पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी । जोधपुर की फ़ौज ने वहां पहुँच १० दिनों तक नगर को लूटा और करीब ढ़ाई लाख का माल लेकर वह वहां से लौटी। इस आक्रमण में सिरोही का पुराना दफ्तर भी जला दिया गया । यह देख महाराव ने महाराजा मानसिंहजी को दण्ड के रुपये देने के लिये अपनी प्रजा से धन इकट्ठा करना प्रारम्भ किया । परन्तु प्रजा दुखी होकर गुजरात और मालवे की तरफ चली गई और सरदार अप्रसन्न होकर महाराव के भ्राता शिवसिंहजी के पास पहुँचे । अन्त में शिवसिंहजी ने महाराव उदयभाणजी को कैद कर राज्य का प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया । यह घटना वि० सं० १८७४ ( ई० स० १८१८ की है।
यद्यपि इसके बाद महाराजा मानसिंहजी ने उदयभाणजी को क़ैद से छुड़वाने के लिये सेना भेजी, तथापि इसमें सफलता नहीं हुई ( देखो पृ० २८० - २८२ ) । परन्तु ये घटनाऐं छत्रसिंहजी की युवराज अवस्था में हुई होंगी | सिरोही पर की दूसरी चढ़ाई का उल्लेख यथास्थान मिलेगा ।
२. इस पर इसके कुटुम्बी भागकर कुचामन चले गए; क्योंकि वहां का ठाकुर इस षड्यंत्र में शरीक नहीं था । कुड़की का ठाकुर भी सिंधियों से मेल रखता था। इसी से विपक्षियों
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