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महाराजा मानसिंहजी यद्यपि सावन ( अगस्त ) में सिंधिया की तरफ़ से अंबाजी और जॉन बुतीसी मरहटों की एक बड़ी सेना लेकर जोधपुर वालों की सहायता को आए, तथापि जयपुर वालों ने रिशवत देकर उन्हें अपनी तरफ़ कर लिया ।
कुछ दिनों में जब जोधपुर वालों के पास रुपया जमा होगया, तब उन्होंने एक लाख रुपये देकर अमीरखाँ को जयपुर पर चढ़ाई करने के लिये साथ ले लिया । उसी समय बख़्शी शिवलाल जयपुर से नई फ़ौज लेकर जोधपुर की तरफ़ आ रहा था । उसके फागी मुकाम पर पहुँचते ही कुचामन आदि के सरदारों और अमीरखाँ ने उस पर अचानक हमला कर दिया। इससे जयपुर की फ़ौज घबराकर भाग खड़ी हुई और उसका सामान राठोड़ों और पठानों ने लूट लिया । यहाँ से आगे बढ़ उन्होंने (जोधपुर वालों ने ) जयपुर पर गोलाबारी की । उनके वहां से लौटने पर मार्ग में सिंघी इन्द्रराज भी, अन्य कुछ सरदारों और पाँच हजार सैनिकों को लेकर, उनसे मिला। इसके बाद वि० सं० १८६४ के भादों (ई० स० १८०७ के सितम्बर) में उन सब ने फिर जयपुर पर चढ़ाई कर उसे ध्वंस करना शुरू किया। इस पर वहां वाले नगर के द्वार बंद कर अपनी रक्षा करने लगे । जैसे ही यह सूचना जयपुर नरेश जगतसिंहजी को मिली, वैसे ही उनका जोधपुर - विजय का उत्साह शिथिल पड़ गया और वह सवाईसिंह के अनुनय-विनय पर ध्यान न देकर, वि० सं० १८६४ की भादों सुदि १३ ( १४ सितंबर) को, अपने देश की रक्षार्थ चलदिए । यह देख बीकानेर - नरेश सूरतसिंहजी को भी बीकानेर लौट जाना पड़ा और ठाकुर सवाईसिंह ने नागोर के किले का आश्रय लिया । जोधपुर का घिराव उठने और जगतसिंहजी के जयपुर की तरफ़ लौटने की सूचना मिलते ही मारवाड़ की और अमीरख़ाँ की सेनाओं ने जयपुर से लौटकर, मार्ग में आती हुई जयपुर नरेश की सेना पर
१. ख्यातों में लिखा है कि जान बुतीसी ने मदद देकर डीडवाना, परबतसर, मारोठ आदि पर दुबारा सवाईसिंह के पक्ष वालों का अधिकार करवा दिया था । परन्तु फागी के युद्ध के बाद वहाँ पर फिर महाराज का अधिकार हो गया ।
२. ख्यातों के अनुसार बूडस्, आहोर और नींबाज आदि के ठाकुर भी इस युद्ध यात्रा में साथ थे ।
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