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मारवाड़ का इतिहास विरोध के नगर से निकल जाने दे तो वे जोधपुर का शहर उसे सौंप सकते हैं। रही किले की बात, सो वहां पर महाराज के स्वयं मौजूद होने से उस विषय में वे कुछ नहीं कर सकते । यह बात सवाईसिंह ने स्वीकार कर ली ।
इस प्रकार बात-चीत कर वे लोग किले में लौट आए और उन्होंने महाराज की अनुमति से, वि० सं० १८६४ की चैत्र सुदि ११ ( ई० स० १८०७ की १८ अप्रेल ) को, जोधपुर नगर शत्रुओं को सौंप दिया। इसके बाद वे आसोप, आउवा, नींबाज, कुचामन, बूडसू, लाँबियाँ आदि के ठाकुरों और थोड़े से अन्य लोगों को साथ लेकर शत्रु के घिराव से बाहर निकल गएँ । शत्रुओं ने भी नगर का अधिकार मिल जाने और उनके चले जाने से किले में घिरे हुए महाराज का बल क्षीण हो जाने के विचार से उनके इस कार्य में किसी तरह की आपत्ति नहीं की। यहाँ से चलकर वे लोग नींबाज होते हुए बाबरे पहुँचे और वहाँ से लोढा कल्याणमल को दौलतराव सिंधिया से सहायता प्राप्त करने के लिए खाना किया। ___ इसी बीच जयपुर-महाराज जगतसिंहजी के और अमीरखाँ के बीच खर्च के रुपयों के बाबत झगड़ा उठ खड़ा हुआ और वह ( अमीरखाँ ) जयपुर वालों का साथ छोड़ कर मेड़ते की तरफ़ चला गया । जैसे ही यह हाल सिंघी इन्द्रराज को मालूम हुआ, वैसे ही उसने तीस हजार रुपये देकर उसे अपनी तरफ़ कर लिया ।
इसके बाद इंद्रराज ने भंडारी पृथ्वीराज और अमीरखाँ को ढूंढाड़ ( जयपुर-राज्य) में लूट-खसोट मचाने के लिये भेजा और स्वयं उन सरदारों में से बहुतों को, जो महाराज का साथ छोड़कर पौकरन-ठाकुर सवाईसिंह से मिल गए थे या इधर-उधर चले गए थे, फिर से महाराज के पक्ष में लाने का प्रबंध करने लगा। चतुर्भुज उपाध्याय ने बूड़सू आदि के ठाकुरों को लेकर डीडवाना, परबतसर, मारोठ आदि पर दुबारा महाराज का अधिकार कायम किया।
१. महाराज को विश्वास दिलाने के लिये इन्द्रराज ने अपने पुत्र फतैराज को और गंगाराम
ने अपने पुत्र भानीराम को इन्हें सौंप दिया था। २. सम्भवतः शत्रुओं ने यह आशा भी की होगी कि इनके बाहर आजाने से हम लोग इन्हें
मिलाकर किले के भीतर का भेद भी जान सकेंगे। ३. किसी किसी ख्यात में कुचामन-ठाकुर शिवनाथसिंह का भी रुपये देने में शरीक होना लिखा है । ये रुपये इन लोगों ने बलँदा वालों से दण्ड के रूप में लिए थे; क्योंकि वहाँ का ठाकुर शिवसिंह पौकरन-ठाकुर सवाईसिंह से मिल गया था ।
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