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मारवाड़ का इतिहास कारण अन्तमें यह वीर-गति को प्राप्त हो गएं । यह घटना वि० सं० १७०१ की सावन सुदि २ ( ई० स० १६४४ की २५ जुलाई ) की है । इसकी सूचना पाते ही किले में उपस्थित रावजी के पन्द्रह राजपूत वीरों ने शाही पुरुषों पर हमला कर दिया, और कुछ ही देर के युद्ध में वे भी दो शाही अफसरों और ६ गुर्जबरदारों को आहत कर रावजी का अनुसरण कर गए । जब यह संवाद रावजी के डेरे पर पहुँच कर आस-पास के लोगों को ज्ञात हुआ, तब चाँपावत बल्लू और राठोड़ बिहारसिंह
आदि ने, राव अमरसिंहजी के बचे हुए आदमियों से मिल कर, अर्जुन गौड़ को मार डालने का इरादा किया । परन्तु इस विचार को कार्य में परिणत करने के पूर्व ही बादशाही सेना ने उन लोगों को घेर लिया। इस प्रकार शाही फौज से घिर जाने पर वे भी निर्भीकता के साथ उससे भिड़ गए और अन्त में अनेक शाही सेना-नायकों को मारकर वीर-गति को प्राप्त हुए ।
१. बादशाहनामा भा० २, पृ० ३८०-३८१ ।
वि० सं० १६९५ के ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि राव अमरसिंहजी ने इसी वर्ष फीरोज़पुर नाम का (कुचेरे परगने का) गांव एक चारण को दान दिया था।
आगरे में यमुना के किनारे पर रावजी का अन्त्येष्टि-संस्कार किया गया था । इनकी दो रानियाँ तो वहीं पर इनके साथ सती हुई और तीन बाद में नागौर में और एक उदयपुर में सती हुई । रावजी पर और इनके वंशजों पर जो छतरियाँ बनाई गई थीं, वे अब तक नागौर में विद्यमान हैं।
कहीं-कहीं रावजी की लाश का यमुना में बहा दिया जाना भी लिखा है । कर्नल टॉडने अपने राजस्थान के इतिहास में अमरसिंह की हाडी रानी का स्वयं आकर किले से अपने पति की लाश ले जाना और उसके साथ सती होना लिखा है।
(देखो भा० २, पृ. ६७८) २. बादशाहनामे में इस घटना का हि. स. १०५४ सल्ख (चाँदरात ) जमादि उल-अव्वल 'पंजशबा' (गुरुवार ) को होना लिखा है।
(देखो, भा॰ २, पृ० ३८०) ३. ये दोनों पहले रावजी के पिता की और फिर स्वयं रावजी की सेवा में रह चुके थे । परन्तु
इस ममय ये बादशाही नौकरी में थे । मारवाड़ की तवारीखों में बिहारसिंह के स्थान पर भावसिंह पावत का नाम लिखा मिलता है । यह शायद नाहडसर का पुराना जागीरदार या। कर्नल टॉडने भी चाँपावत बल्लू और कुंपावत भाऊका केसर से रंगे वस्त्र पहन कर आगरे के लाल किले में मार-काट मचाना और वहीं पर वीरगति को प्राप्त होना लिखा है।
( देखो-राजस्थान का इतिहास, भा॰ २, पृ०६७७-९७८) ४. बादशाहनामा, भा० २ पृ० ३८३-३८४ ।
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