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मारवाड़ का इतिहास
चांदी के सिक्के की दर बहुत गिर गई । इस संकट को दूर करने के लिये यहां पर भी अंगरेजी रुपया जारी करना पड़ा ।
यद्यपि सोने के सिक्के ( मोहरें ) अब तक व्यापारियों की तरफ़ से ही बनवाए जाते हैं, तथापि तांबे के सिक्के (पैसे) अब राज्य की तरफ से बनते हैं ।
मारवाड़ की टकसालों और उनके बने सिक्कों का विवरण ।
नागोर की टकसाल - वि० सं० १६९५ ( ई० स० १६३८ ) में बादशाह शाहजहां ने मारवाड़ - नरेश महाराजा गजसिंहजी की इच्छानुसार उनके ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह को राव की पदवी देकर नागोर का प्रान्त जागीर में दे दिया था । कहते हैं कि इसके बाद ही उन्होंने बादशाह की आज्ञा लेकर वहां पर अपना अमरशाही पैसा चलाया । यह तोल में २५५ ग्रेन ( १५ माशे) के करीब था और इसपर केवल एक तरफ एक चतुष्कोण में फ़ारसी अक्षरों में " दारुल बरकात जरब नागोर मैमनत मानूस सन्-ए-जलूस ११" लिखा रहता था । यह सन्-ए-जलूस शाहजहां के ११ वें राज्य - वर्ष का द्योतक था ।
इसके बाद वि० सं० १८३७ ( ई० स० १७८०) में यहां पर भी मारवाड़ - नरेश महाराजा विजयसिंहजी का विजयशाही सिक्का बनना प्रारम्भ हुआ । यहां के रुपयों पर अन्य लेख के अलावा जिस तरफ़ 'श्रीमाताजी' लिखा रहता है, उसी तरफ़ ऊपर को भाड़ और तलवार अथवा उसके भाग बने होते हैं ।
यह टकसाल वि० सं० १९४५ ( ई० स० १८८८ ) में बंद कर दी गई ।
जोधपुर की टकसाल - यह वि० सं० १८३७ ( ई० स० १७८०) में खोली गई थी । यहां के बने रुपयों पर अन्य लेख के अलावा एक तरफ़ दारोगा का निशान और दूसरी तरफ़ ‘श्रीमाताजी' लिखा रहता है और उसी के नीचे तलवार बनी होती है ।
पहले यहां पर सोने, चांदी और तांबे के सिक्के बना करते थे । परन्तु वि० सं० १९५६ ( ई० स० १६०० ) से अंगरेज़ी रुपये का प्रचलन हो जाने से मारवाड़ की
१. कहीं कहीं ऐसा भी लिखा मिलता है कि, जिस समय उनगखां, जो बाद में सुलतान गयासुद्दीन बलबन के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा, सूबेदार की हैसियत से नागोर में रहता था, उस समय भी वहां पर एक टकसाल थी ।
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