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मारवाड़ का इतिहास
गोल लिए विपक्षियों को दो गोल से हराया। इस सरपंच के 'ऑफ़-साइड' (Ofside) के नियमों से अनभिज्ञ होने के कारण ही महाराजा साहब की पार्टी को सफलता मिली थी । इसके अलावा हारी हुई टोली का निर्णायक से दलील करना और भी चित्ताकर्षक था; क्योंकि प्रातःकालीन भोजन ( B ea': ast ) के समय प्रादेशिक अफसर ने महाराजा साहब के दल को विश्वास दिला दिया था कि वहां के लोग अब विशेष जंगली और मनुष्य-भक्षक नहीं रहे हैं । इसके बाद यह दल अपनी मोटरों में बैठ कर करेमा (Karema ) नदी पर पहुँचने के लिये आगे बढ़ा और शाम होने के पूर्व ही वहां पर खेमे गाड दिए गए।
दूसरे दिन प्रातःकाल महाराजा साहब अागे के पड़ाव पर चले गए और वहां पर कुछ दिन तक बिना शिकार किए ही ठहरे रहे । यद्यपि उस प्रदेश में हाथियों की बहुतायत थी, तथापि उसके अति सघन वृक्षाच्छादित होने से वहां पर अच्छे नर-हाथी का पता लगाना कठिन था ।
अपने अबतक के साहस-पूर्ण शिकार-सम्बन्धी कार्य के बाद वहां के डेरे पर महाराजा साहब ने क्रीकिट खेलने और अपने जन्म-दिवस के उपलक्ष्य में एका-एक नियत किए खेलों के छाया-चित्र लेने में बड़े विश्राम का अनुभव किया ।
महाराज अजितसिंहजी ने भी, जो करेमा के डेरे पर पहुँचने के दूसरे दिन ही शिकार के लिये एक तरफ़ चले गए थे, अबतक कोई समाचार न भेजा था और इससे यह अनुमान करलिया गया था कि वह भी हाथी के शिकार में उस समय तक सफल नहीं हो सके थे ।
इसके बाद महाराजा साहब सिंगीडा ( Singica ) की तरफ़ चले । यद्यपि वहां पर भी हाथी का शिकार न हो सका, तथापि आपने एक बड़ा और शानदार कूडु (Kudu ) मारा; जिसके सींग नाप में ५५६ इंच थे ।
महाराज अजितसिंहजी भी अबतक हाथी का शिकार करने में सफल न हो सके थे । इसलिये पहले सिंहों और अन्य पशुओं के शिकार को जाने का और वापस लौटते हुए यदि समय मिले तो हाथियों के शिकार करने का निश्चय किया गया। इसके बाद जिस समय महाराजा साहब कौंडोबा इरंगी (Kondoa Irangi) में से होकर लोट रहे थे, उस समय आपने एक विशाल वृक्ष देखा । यूरोपीय महायुद्ध के दिनों में, जिस समय यह गांव जर्मनों की सेना का केन्द्र (Head quarter) था, उस समय वे
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