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________________ ७२० जैनसम्प्रदायशिक्षा। १३-यदि गर्भसम्बन्धी प्रश्न करते समय सूर्य स्वर में आकाश तत्त्व चलता हो तो नपुंसक की तथा चन्द्र स्वर में आकाश तत्व चलता हो तो बाँझ लड़की की उत्पत्ति कह देनी चाहिये। १४-यदि कोई सुखमना स्वर में गर्भ का प्रश्न करे तो कह देना चाहिये कि-दो लड़कियाँ होंगी। १५-यदि कोई दोनों स्वरों के चलने के समय में गर्भविषयक प्रश्न करे तथा उस समय यदि चन्द्र स्वर तेज़ चलता हो तो कह देना चाहिये कि-दो कन्यायें होंगी तथा यदि सूर्य स्वर तेज़ चलता हो तो कह देना चाहिये कि-दो पुत्र होंगे। गृहस्थों के लिये आवश्यक विज्ञप्ति । स्वरोदय ज्ञान की जो २ बातें गृहस्थों के लिये उपयोगी थीं उन का हम ने ऊपर कथन कर दिया है, इन सब बातों को अभ्यस्त ( अभ्यास में) रखने से गृहस्थों को अवश्य आनन्द की प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि स्वरोदय के ज्ञान में मन और इन्द्रियों का रोकना आवश्यक होता है। यद्यपि प्रथम अभ्यास करने में गृहस्थों को कुछ कठिनता अवश्य मालूम होगी परन्तु थोड़ा बहुत अभ्यास हो जाने पर वह कठिनता आप ही मिट जावेगी, इसलिये आरम्भ में उस की कठिनता से भय नहीं करना चाहिये किन्तु उस का अभ्यास अवश्य करना ही चाहिये, क्योंकि-यह विद्या अति लाभकारिणी है, देखो! वर्तमान समय में इस देश के निवासी श्रीमान् तथा दूसरे लोग अन्यदेशवासी जनों की बनाई हुई जागरणघटिका ( जगाने की घड़ी) आदि वस्तुओं को निद्रा से जगाने आदि कार्य के लिये द्रव्य का व्यय कर के लेते हैं तथा रात्रि में जितने बजे पर उठना हो उसी समय की जगाने की चाबी लगा कर घड़ी को रख देते हैं और ठीक समय पर घड़ी की आवाज़ को सुन कर उठ बैठते हैं, परन्तु हमारे प्राचीन आर्यावर्तनिवासी जन अपनी योगादि विद्या के बल से उक्त जागरण आदि का सब काम लेते थे, जिस में उन की एक पाई भी खर्च नहीं होती थी। (प्रश्न) आप इस बात को क्या हमें प्रत्यक्ष कर बतला सकते हैं कि-आर्यावर्तनिवासी प्राचीन जन अपनी योगादि विद्या के बल से उक्त जागरण आदि का सब काम लेते थे? (उत्तर) हाँ, हम अवश्य बतला सकते हैं, क्योंकि-गृहस्थों के लिये हितकारी इस प्रकारकी बातों का प्रकट करना हम अत्यावश्यक समझते हैं, यद्यपि बहुत से लोगों का यह मन्तव्य होता है कि इस प्रकार की गोप्य बातों को प्रकट नहीं करना चाहिये परन्तु हम ऐसे विचार को बहुत तुच्छ तथा सङ्कीर्णहृदयता का चिह्न समझते हैं, देखो! इसी विचार से तो इस पवित्र देश की सब विद्यार्थे नष्ट हो गई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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