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पञ्चम अध्याय ।
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राव श्री लूणकरण जी के पाटनशीन राव श्री जैतसी जी हुए, इन्हों ने मुहते करेमसी के छोटे भाई वरसिंह को अपना मन्त्री नियत किया ।
वरसिंह के मेघराज, नगराज, अमरसी, भोजराज, डुंगरेसी और हरराज नामक छः पुत्र हुए।
इन के द्वितीय पुत्र नगराज के संग्रामसिंह नामक पुत्र हुआ और संसामसिंह के कर्मचन्द नामक पुत्र हुआ ।
वरसिंह के काल को प्राप्त होने से राव श्री जैतसी जी ने उन के स्थानपर उन के द्वितीय पुत्र नगराज को नियत किया ।
मन्त्री नगराज को चापानेर के बादशाह मुंदफर की सेवा में किसी कारण से रहना पड़ा और उन्हों ने बादशाह को अपनी चतुराई से खुश करके अपने मालिक की पूरी सेवा बजाई, तथा बादशाह की भाज्ञा लेकर उन्हों ने श्री शेत्रुजय की यात्रा की और वहाँ भण्डार की गड़बड़ को देख कर शेत्रुञ्जय गढ़ की कूँची अपने हाथ में ले ली, मार्ग में एक रुपया, एक थाल और पाँच सेर का एक लड्डू, इन का प्रतिगृह में साधर्मी भाइयों को प्रतिस्थान में लावण बाँटते हुए तथा farart और आबू तीर्थ को भेंट करते हुए ये बीकानेर में आ गये ।
संवत् १५८२ में जब कि दुर्भिक्ष पड़ा उस समय इन्हों ने शत्रुकार (सदावर्त) दिया, जिस में तीन लाख पिरोजों का व्यय किया ।
एक दिन इन के मन में शयन करने के समय देरावर नगर में जाकर दादा जी श्री जिनकुशल सूरि जी महाराज के दर्शन करने की अभिलाषा हुई परन्तु मन में यह भी विचार उत्पन्न हुआ कि देरावर का मार्ग बहुत कठिन है, पीने के लिये जलतक भी साथ में लेना पड़ेगा, साथ में संघ के रहने से साधर्मी भाई भी होंगे, उन को किसी प्रकार की तकलीफ होना ठीक नहीं है, इस लिये सब प्रबंध उत्तम होना चाहिये, इत्यादि अनेक विचार मन में होते रहे, पीछे निद्रा आ गई, पिछली रात्रि में स्वप्न में श्री गुरुदेव का दर्शन हुआ तथा यह आबाज़ हुई कि - "हमारा स्तम्भ गड़ाले में करा के वहाँ की यात्रा कर, तेरी यात्रा मान लेंगे" आहा ! देखो भक्त जनों की मनोकामना किस प्रकार पूर्ण होती है, वास्तव में नीतिशास्त्र का यह वचन बिलकुल सत्य है कि- "नहीं देव पाषाण में, दारु मृत्तिका माँहि ॥ देव भाव माँही बसै, भावमूल सब माँहि " ॥ १ ॥ अर्थात् न तो देव पत्थर में है, न लकड़ी और मिट्टी में है, किन्तु देव केवल अपने भाव में है, तात्पर्य यह है कि - जिस देवपर अपना सच्चा भाव होगा वैसा ही फल वह देव
१ - यह नारनौल के लोदी हाजीखान के साथ युद्ध कर उसी युद्ध में काम आया ॥ २-हुंमरसी की औलादवाले लोग डुंगराणी कहलाये ॥ ३-एक लेख में ऐसा भी लिखा है कि अमरसी जी के पुत्र संग्रामसिंह जी हुए ।
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