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पञ्चम अध्याय।
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तब महाराज ने कहा कि-"यह हमारे काम का नहीं है, अतः हम इसे नहीं लेंगे, तुम दयामूल धर्म के उपदेश को सुनो तथा उस का ग्रहण करो कि जिस से तुम्हारा उभय लोक में कल्याण हो" महाराज के इस वचन को सुन कर दोनों माइयों ने दयामूल जैनधर्म का ग्रहण किया तथा आचार्य महाराज थोड़े दिनों के बाद वहाँ से अन्यत्र विहार कर गये, बस उसी धर्म के प्रभाव से दूगढ़
और सूगड़ दोनों भत्इयों का परिवार बहुत बढ़ा (क्यों न बढ़े-'यतो धर्मस्ततो जयः' क्या यह वाक्य अन्यथा हो सकता है) तथा बड़े भाई दूगड़ की औलादवाले लोग दूगड़ और छोटे भाई सूगड़ की औलादवाले लोग सूगड़ कहलाने लगे। सत्रहवीं संख्या-मोहीवाल, आलावत, पालावत,
दूधेडिया गोत्र। विक्रमसंवत् १२२१ (एक हजार दो सौ इक्कीस) में मोहीग्रामाधीश पँवार राजपूत नारायण को नरमणि मण्डित भालस्थल खोडिया क्षेत्रपाल सेवित जैनाचार्य श्री जिनचन्द्र सूरि जी महाराज ने प्रतिबोध देकर उस का महाजन वंश और मोहीवाल गोत्र स्थापित किया, नारायण के सोलह पुत्र थे अतः मोहीवाल गोत्र में से निम्नलिखित सोलह शाखायें हुई:
१-मोहीवाल । २-आलावत । ३-पालावत । ४-दूधेड़िया। ५-गोय । ६-थरावत । ७-खुड़धा। ८-टौडरवाल। ९-माधोटिया । १०-बंभी । ११-गिड़िया। १२-गोड़वाड्या । १३-पटवा । १४-बीरीवत । १५-गांग । १६-गौध ।
ये अपने भक्तों को प्रत्यक्ष चमत्कार दिखला रहे हैं, इन की महिमा का प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि-ऐसा कोई भी प्राचीन जैन वस्तीवाला नगर नहीं है जिस में इन के चरणों का स्थापन न किया गया हो अर्थात् सब ही प्राचीन नगरों में, मन्दिरों और बगीचों में इन के चरण विराजमान हैं और दादा जी के नाम से विख्यात हैं, जब श्रीजिनचन्द्रसूरि जी महाराज का दिल्ली में स्वर्गवास हुआ था तब श्रावकों ने उन की रत्थी को दिल्ली के माणिक चौक में विसाई लेने के लिये रक्खी थी, उस समय यह चमत्कार हुआ कि वहाँ से रत्थी नहीं उठी, उस चमत्कार को देख कर बादशाह ने वहीं पर दाग देने का हुक्म दे दिया तब श्रीसङ्घ ने
उन को दाग दे दिया, पुरानी दिल्ली में वहाँ पर अभी तक उन के चरण मौजूद हैं, यदि इन का विशेष वर्णन देखना हो तो उपाध्याय श्री क्षमा कल्याण जी गणी (जो कि गत शताब्दी में महान् विद्वान् हो गये हैं और जिन्हों ने मूल श्रीपालचरित्र पर संस्कृतटीका बनाई है तथा आत्मप्रबोध आदि अनेक ग्रन्थ संस्कृत में रचे हैं ) के बनाये हुए कोटिकगच्छ गुर्वावलि नामक संस्कृतग्रन्थ में देख लेना चाहिये।
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