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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा | पन्द्रहवी संख्या - आघरिया गोत्र । सिन्ध देश का राजा गोसलसिंह भाटी राजपूत था तथा उस का परिवार करीब पन्द्रह सौ घर का था, विक्रमसंवत् १२१४ ( एक हजार दो सौ चौदह ) में उन सब को नरमणि मण्डित भालस्थल खोड़िया क्षेत्रपालसेवित खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने प्रतिबोध देकर उस का महाजन वंश और भावरिया गोत्र स्थापित किया । ६२२ सोलहवी संख्या - दूगड, सुगड गोत्र । पाली नगर में सोमचन्द्र नामक खीची राजपूत राज्याधिकारी था, किसी कारण से वह राजा के क्षोभ से वहाँ से भाग कर जङ्गल देश के मध्यवर्त्ती जांगलू नगर में आकर बस गया, सोमचन्द्र की ग्यारहवीं पीढ़ी में सूरसिंह नामक एक बड़ा नामी शूरवीर हुआ, सूरसिंह के दो पुत्र थे जिन में से एक का नाम दूगड़ और दूसरे का नाम सुगड़ था, इन दोनों भाइयों ने जांगलू को छोड़ कर मेवाड़ देश में आघाट गाँव को जा दाबा तथा वहीं रहने लगे, वहाँ तमाम गाँववाले लोगों को नाहरसिंह वीर बड़ी तकलीफ देता था, उस ( तकलीफ ) के दूर करने के लिये ग्रामनिवासियों ने अनेक भोपे आदि को बुलाया तथा उन्हों ने आकर अपने २ अनेक इल्म दिखलाये परन्तु कुछ भी उपद्रव शान्त न हुआ और वे ( भोपे आदि ) हार २ कर चले गये, विक्रमसंवत् १२१७ ( एक हजार दो सौ सत्रह ) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज के पट्ट प्रभाकर नरमणिमण्डित भालस्थल खोड़िया क्षेत्रपाल सेवित जैनाचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराज विहार करते हुए वहाँ ( आघाट ग्राम में ) पधारे, उन की महिमा को सुनकर दूगड़ और सूगड़ दोनों भाई आचार्य महाराज के पास आये और नमन वन्दन आदि शिष्टाचार कर बैठ गये तथा महाराज से अपना सब दुःख प्रकट कर उस के मिटाने के लिये अत्यन्त आग्रह करने लगे, उन के अत्यन्त आग्रह से कृपालु आचार्य महाराज ने पद्मावती जया और विजया देवियों के प्रभाव से नारसिंह वीर को वश में कर लिया, ऐसा होने से गाँव का सब उपद्रव शान्त हो गया, महाराज की इस अपूर्व शक्ति को देख कर दोनों भाई बहुत प्रसन्न हुए और बहुत सा द्रव्य लाकर आचार्य महाराज के सामने रख कर भेंट करने लगे, १ - इनका जन्म विक्रमसंवत् १९९९ के भाद्रपद सुदि ८ के दिन हुआ, १२११ में वैशाख सुदि ५ को ये सूरि पद पर बैठे तथा १२२३ में भाद्रपद वदि १४ को दिल्ली में इनका स्वर्गवास हुआ, इन को दादा साहिब श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज ने अपने हाथ से संवत् १२११ में वैशाख सुदि ५ के दिन विक्रमपुर नगर में ( विक्रमपुर से बीकानेर को नहीं समझना चाहिये किन्तु यह विक्रमपुर दूसरा नगर था ) आचार्य पद पर स्थापित किया था तथा नन्दी ( पाट ) का महोत्सव रासल ने किया था, ये दोनों ( गुरु चेला ) आचार्य महाप्रतापी हुए थे, यहाँ तक कि देवलोक होने के बाद भी इन्हों ने अनेक चमत्कार दिखलाये थे और वर्त्तमान में भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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