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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
(केकेई ) ग्राम में पधारे, उस समय लक्ष्मणपाल ने आचार्य महाराज की बहुत ही भक्ति की और उन के धर्मोपदेश को सुनकर दयामूल धर्म का अङ्गीकार किया, एक दिन व्याख्यान में शेत्रुञ्जय तीर्थ का माहात्म्य आया उस को सुन कर लक्ष्मणपाल के मन में संघ निकाल कर शेत्रुञ्जय की यात्रा करने की इच्छा हुई और थोड़े ही दिनों में संघ निकाल कर उन्होंने उक्त तीर्थयात्रा की तथा कई आवश्यक स्थानों में लाखों रुपये धर्मकार्य में लगाये, जैनाचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी महाराज ने लक्ष्मणपाल के सद्भाव को देख उन्हें संघपति का पद दिया, यात्रा करके जब केकेई ग्राम में वापिस आ गये तब एक दिन लक्ष्मणपाल ने गुरु महाराज से यह प्रार्थना की कि-"हे परम गुरो ! धर्म की तथा आप की सत्कृपा (बदौलत) से मुझे सब प्रकार का आनन्द है परन्तु मेरे कोई सन्तति नहीं है, इस लिये मेरा हृदय सदा शून्यवत् रहता है", इस बात को सुन कर गुरुजी ने स्वरोदय ( योगविद्या) के ज्ञानबल से कहा कि-"तुम इस बात की चिन्ता मत करो, तुम्हारे तीन पुत्र होंगे और उन से तुम्हारे कुल की वृद्धि होगी" कुछ दिनों के बाद आचार्य महाराज अन्यत्र विहार कर गये और उन के कथनानुकूल लक्ष्मणपाल के क्रम से ( एक के पीछे एक) तीन लड़के उत्पन्न हुए, जिन का नाम लक्ष्मणपाल ने यशोधर, नारायण और महीचन्द रक्खा, जब ये तीनों पुत्र यौवनावस्था को प्राप्त हुए तब लक्ष्मणपाल ने इन सब का विवाह कर दिया, उन में से नारायण की स्त्री के जब गर्भस्थिति हुई तब प्रथम जापा (प्रसूत ) कराने के लिये नारायण की स्त्री को उस के पीहरवाले ले गये, वहाँ जाने के बाद यथासमय उस के एक जोड़ा उत्पन्न हुआ, जिस में एक तो लड़की थी और दूसरा सर्पाकृति (साँपकी शकलवाला) लड़का उत्पन्न हुआ था, कुल महीनों के बाद जब नारायण की स्त्री पीहर से सुसराल में आई तब उस जोड़े को देखकर लक्ष्मणपाल आदि सब लोग अत्यन्त चकित हुए तथा लक्ष्मणपाल ने अनेक लोगों से उस सीकृति बालक के उत्पन्न होने का कारण पूछा परन्तु किसी ने ठीक २ उस का उत्तर नहीं दिया ( अर्थात् किसी ने कुछ कहा और किसी ने कुछ कहा), इस लिये लक्ष्मणपाल के मन में किसी के कहने का ठीक तौर से विश्वास नहीं हुआ, निदान वह
उस समय यों ही रही, अब साकृति बालक का हाल सुनिये कि-यह शीत ऋतु के कारण सदा चूल्हे के पास आकर सोने लगा, एक दिन भवितव्यता के वश क्या हुआ कि वह सर्पाकृति बालक तो चूल्हे की राख में सो रहा था और उस की बहिन ने चार घड़ी के तड़के उठ कर उसी चूल्हे में अग्नि जला दी, उस अग्नि से जलकर वह सर्पाकृति बालक मर गया और मर कर व्यन्तर हुआ, तब वह व्यन्तर नाग के रूप में वहाँ आकर अपनी बहिन को बहुत धिकारने लगा तथा कहने लगा कि-"जब तक मैं इस व्यन्तरपन में रहूंगा तब तक लक्ष्मणपाल के वंश में लड़कियां कभी सुखी नहीं रहेंगी अर्थात् शरीर में कुछ न कुछ तकलीफ सदा ही बनी रहा करेगी" इस प्रसंग को सुनकर वहाँ बहुत से लोग एकत्रित
बात उ
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