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द्वितीय अध्याय ।। वे माता और पिता वैरी हैं जिन्हों ने लाड़ के वश का को नहीं पड़ाया, इस कारण वह बालक सभा में जाकर श. जैसे हमों की पंक्ति में बगुला शोभा को नहीं पाता है । ७५ हाक ।। ८५ ।।
पर्थात् प्रधान के पुत्र लाड़ से दोष बहु, ताड़न से बहु सार ॥ बीनाको
यातें सुत अरु शिष्य को, ताड़न ही निरधार ।। ७६ लता है, पुत्रों का लाड़ करने से बहुत दोष ( अवगुण ) होते हैं और ताड़न (' नहीं काने ) से बहुत लाभ होता है, इस लिये पुत्र और शिष्य का सदा ताड़ा, करना ही उचित है ॥ ७६ ॥
पांच बरस सुत लाड़ कर, दश लौ ताड़न देहु ॥
बरस सोलवें लागते, कर सुत मित्र सनेहु ॥ ७७ ॥ पांच वर्ष तक पुत्र का (खिलाने पिलाने आदि के द्वारा) लाड़ करना चाहिये, दश वर्ष तक ताड़न करना चाहिये अर्थात् त्रास देकर विद्या पढ़ानी चाहियेपरन्तु जब सोलहवां वर्ष लगे तब पुत्र को मित्र के समान समझ कर सब वर्ताव करना चाहिये ॥ ७७ ॥
रूप भयो यौवन भयो, कुल हू में अनुकूल ॥
विन विद्या शोभै नहीं, गन्धहीन ज्यों फूल ॥ ७८ ॥ रूप तथा यौवनवाला हो और बड़े कुल में उत्पन्न भी हुआ हो तथापि विद्याहित पुरुष शोभा नहीं पाता है, जैसे-गन्ध से हीन होने से टेसू
(केसूले) का फूल ॥ ७ ॥ .. पर को वसन रु अन्न पुनि, सेज परस्त्री नेह ॥
दूरि तजहु एते सकल, पुनि निवास परगेह ।। ७९ ।। पराया वस्त्र, पराया अन्न, पराई शय्या, पराई स्त्री और पराये मकान में रहना, इन पांचों बातों को दूर से ही छोड़ देना चाहिये ॥ ७९ ॥
जग जन्मे फल धर्म अरु, अर्थ काम पुनि मुक्ति । जासें सधत न एक हू, दुःख हेत तिहिं भुक्ति ॥८० ॥
१-तात्पर्य यह है कि-सोलह वर्ष के पीछे ताडन कर विद्या पढाने का समय नहीं रहता है, क्योंकि नोलह वर्ष तक में सब इन्द्रियां और मन आदि परिपक होकर जैसा संस्कार हृदय में जम जाता है, उस का मिटना अति कठिन होता है, जैसे कि बडे वृक्ष की शाखा सुदृढ होने से नहीं ननाई जा सकती है।
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