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जैननसम्प्रदायशिक्षा ।
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मन में सोचे का फल यही है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को मन्त्र सरि चारों में से जिस ने एक भी प्राप्त नहीं किया उस का सब
के लिये है ॥ ८० ॥
मन से विच
उसकी निन्दाविन दुष्ट नर, कबहूँ नहिं सुख पाय || आप ही त्यागि काक जिमि सर्व रस, विष्ठा चित्त सुहाय ॥ ८१ ॥ दुर्जन मनुष्य पराई निन्दा किये बिना कभी सुखी नहीं होता है ( अर्थात् राई निन्दा करने से ही सुखी होता है ), जैसे कौआ अनेक प्रकार का उत्तम भोजन छोड़ कर विष्टा खाये विना नहीं रहता है ॥ ८१ ॥
स्तुति विद्या की लोक में, नहिं शरीर की चाहिँ ।
काली कोयल मधुर धुनि सुनि सुनि सकल सराहिं ॥ ८२ ॥
लोक में विद्या से प्रशंसा होती है किन्तु शरीर की प्रशंसा नहीं होती है, देखो । कोयल यद्यपि काली होती है, तथापि उसके मीठे स्वर को सुन कर सब ही उस की प्रशंसा करते हैं ॥ ८२ ॥
सवैया- पितु धीरज औ जननी जु क्षमा, मननिग्रह भ्रात सहोदर है।
सुत सत्य दया भगिनी गृहिणी, शुभ शान्ति हु सेवमें तत्पर है ॥ मुखसेज सजी धरणी दिशि अम्बर, ज्ञानसुधा शुभ आहर है।
जिन योगिन के जु कुटुम्ब यहैं, कहु मीत तिन्हें किन्ह को ढेर है जिन का धीरज पिता है, क्षमा माता है, मन का संयम भ्राता है, सत्य पुत्र है, दया बहिन है, सुन्दर शान्ति ही सेवा करनेवाली भार्या (स्त्री) है, पृथिवी सुन्दर सेज है, दिशा वस्त्र हैं तथा ज्ञानरूपी अमृत के समान भोजन है, हे मित्र ! जिन योगी जनों के उक्त कुटुम्बी हैं बतलाओ उनको किस का डर हो सकता है ॥ ८३ ॥ बादल छाया तृण अगनि, अधम सेव थल नीर ॥ वेश्याने कुमित्र ये, बुदबुद ज्यों नहिं थीर || ८४ ॥
बादल की छाया, तिनकों ( फूस ) की अग्नि, नीच स्वामी की सेवा, रेतीली पृथिवी पर वृष्टि, वेश्या की प्रीति और दुष्ट मित्र, ये छओं पदार्थ पानी के बुलबुले के समान हैं अर्थात् क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं, इस लिये ये कुछ भी लाभदायक नही हैं ॥ ८४ ॥
१ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का स्वरूप सुभाषितावलि के २२३ से २२८ वें तक दोहों में देखो ॥ २ - यह सवैया "धैर्य यस्य पिता क्षमा च जननी" इत्यादि भर्तृहरिशतक के श्लोक का
अनुवादरूप है ॥
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