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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
मन में सोचे काम को, मत कर वचन प्रकास ॥ मत्र सरिस रक्षा करै, काम भये पर भास ॥ ७० ॥
मन से विचारे हुए काम को वचन के द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिये, किन्तु उस की मन्त्र के समान रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि कार्य होने पर तो वह आप ही सब को प्रकट हो जायगा ॥ ७० ॥
मूरख नर से दूर तुम, सदा रहो मतिमान ||
विन देखे कंटक सरिस, बेधै हृदय कुवान ॥ ७१ ॥
साक्षात् पशु के समान मूर्ख जन से सदा बच कर रहना अच्छा है, क्योंकि वह विना देखे कांटे के समान कुवचन रूपी कांटे से हृदय को वेध देता है ॥ ७३ ॥
कण्टक अरु धूरत पुरुष, प्रतीकार द्वै जान | जूती से मुख तोड़नो, दूसर त्यागन जान ॥
७२ ॥ धूर्त मनुष्य और कांटे के केवल दो ही उपाय इलाज ) हैं - या तो जूते से उस के मुख को तोड़ना, अथवा उस से दूर हो कर चलना ॥ ७२ ॥
शैल शैल माणिक नहीं, मोती गज गज नाहिं ॥
वन वन में चन्दन नहीं, साधु न सब थल माहिँ ॥ ७३ ॥
सब पर्वतों पर माणिक पैदा नहीं होता है, सब हाथियों के कुम्भस्थल (मस्तक) में मोती नहीं निकलते हैं, सब वनों में चन्दन के वृक्ष नहीं होते हैं, और सब स्थानों में साधु नहीं मिलते हैं ॥ ७३ ॥
पुत्रहि सिखवै शील को, बुध जन नाना रीति ॥
कुल में पूजित होत है, शीलसहित जो नीति ॥ ७४ ॥
बुद्धिमान् लोगों को उचित है कि अपने लड़कों को नाना भांति की सुशोलता में लगावें, क्योंकि नीति के जानने वाले यदि शीलवान् हों तो कुल में पूजित होते हैं ॥ ७४ ॥
ते माता पितु शत्रु सम, सुत न पढ़ावैं जौन ॥
राजहंस बिच वकसरिस, सभा न शोभत तौन ॥ ७५ ॥
१ – क्योंकि कार्य के सिद्ध होने से पूर्व यदि वह सब को विदित हो जाता है तो उस में किनी न किसी प्रकार का प्रायः विघ्न पड जाता है, दूसरा यह भी कारण है कि कार्य की सिद्धि से पूर्व यदि वह सबको प्रकट हो जावे कि अमुक पुरुष अमुक कार्य को करना चाहता है और दैवयोग से उस कार्य की सिद्धि न हो तो उपहास का स्थान होगा || २ - साधु नाम सत्पुरुष का है | ३ - शील का लक्षण ९१ वे दोहे की व्याख्या में देखो ||
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