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द्वितीय अध्याय ।
मिथ्या हठ अरु कपटपन, मौढ्य कृतनी भाव ॥ निर्दयपन पुनि अशुचिता, नारी सहज सुभाव ॥ ६४ ॥ झूठ बोलना, हठ करना, कपट रखना, मूर्खता, किये हुये उपकार को भूल जाना, दया का न होना, और अशुचिता अर्थात् शुद्ध न रहना, ये सात दोष स्त्रियों में स्वभाव से ही होते हैं ॥ ६४ ॥
भोजन अरु भोजनशकति, भोगशक्ति वर नार ।।
गृह विभूति दातारपन, छउँ अति तप निर्धार ।। ६५ ॥ उत्तम भोजन के पदार्थों का मिलना तथा भोजन करने की शक्ति होना, स्त्री से भोग करने की शक्ति का होना तथा सुंदर स्त्री की प्राप्ति होना, और धन की प्राप्ति होना तथा दान देने का स्वभाव होना, ये छवों बातें उन्हीं को प्राप्त होती है जिन्हों ने पूर्व भव में पूरी तपस्या की है ॥ ६५ ॥
नारी इच्छागामिनी, पुत्र होय वस जाहि ॥
अल्प धन हुँ सन्तोष जिहि, इहैं स्वर्ग है ताहि ॥६६॥ जिन पुरुप की स्त्री इच्छा के अनुसार चलनेवाली हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, और थोड़ा भी धन पाकर जिस ने सन्तोष कर लिया है, उस पुरुष को इसी लोक में स्वर्ग के समान सुख समझना चाहिये ॥ ६६ ॥
सुत वोही पितुभक्त जो, जो पालै पितु सोय ॥ मित्र वही विश्वास जिहि, नारी सो सुख होय ॥ ६७ ॥ पुत्र वही है जो माता पिता का भक्त हो, पिता वही है जो पालन पोषण करे, मित्र नही है जिस पर विश्वास हो और स्त्री वही है जिस से सदा सुख प्राप्त हो ॥६७॥
पीछे काज नसावही, मुख पर मीठी बान ॥
परिहरु ऐसे मित्र को, मुख पय विप घट जान ।। ६८ ॥ पीछे निन्दा करे और काम को बिगाड़ दे तथा सामने मीठी २ बातें बनावे, ऐसे नित्र को अन्दर विष भरे हुए तथा मुख पर दूध से भरे हुए घड़े के समान छोड़ देना चाहिये ॥ ६८ ॥
नहिँ कुमित्र विश्वास कर, मित्रहुँ को न विश्वास ॥
कबहुँ कुपित द्वै मित्र हू, गुह्य करै परकास ॥ ६९ ।। खटे मित्र का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये, किन्तु मित्र का भी विश्वास नहीं करना चाहिये, क्योंकि संभव है कि-मित्र भी कभी क्रोध में आकर गुप्त बात को प्रकट कर दे ॥ ६९ ॥
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