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जैनसम्प्रदायशिक्षा। से, हलकी खुराक के खाने से तथा यदि दस्त की कन्जी हो तो उस का निवारण करने से ही यह ज्वर उतर जाता है ।
४-इस ज्वर के प्रारम्भ में गर्म पानी में पैरों को डुबाना चाहिये, इस से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है।
५-इस ज्वर में ठंढा पानी नहीं पीना चाहिये किन्तु तीन उफान आने तक पानी को गर्म कर के फिर उस को ठंढा करके प्यास के लगने पर थोड़ा २ पीना चाहिये।
६-सोंठ, काली मिर्च और पीपल को घिस कर उस का अञ्जन आंख में कर• वाना चाहिये।
७-बहुत खुली हवा में तथा खुली हुई छत पर नहीं सोना चाहिये।
८-स्थलप्रदेश में (मारवाड़ आदि प्रान्त में) बाजरी का दलिया, पूर्व देश में भात की कांजी वा मांड, मध्य मारवाड़ में मूंग का ओसामण वा भात तथा दक्षिण में अरहर (तूर ) की पतली दाल का पानी अथवा उस में भात मिला कर खाना चाहिये।
९-यह भी स्मरण रहे कि-यह ज्वर जाने के बाद कभी २ फिर भी वापिस आ जाता है इस लिये इस के जाने के बाद भी पथ्य रखना चाहिये अर्थात् जब तक शरीर में पूरी ताकत न आ जावे तब तक भारी अन्न नहीं खाना चाहिये तथा परिश्रम का काम भी नहीं करना चाहिये।
१०-वातज्वर में जो काढ़ा दूसरे नम्बर में लिखा है उसे लेना चाहिये। ११-गिलोय, सोंठ और पीपरामूल, इन का काढ़ा पीना चाहिये। १२-भूरीगणी, चिरायता, कुटकी, सोंठ, गिलोय और एरण्ड की जड़, इन का काढ़ा पीना चाहिये। १३-दाख, धमासा और अडूसे का पत्ता, इन का काढ़ा पीना चाहिये।
१४-चिरायता, बाला, कुटकी, गिलोय और नागरमोथा, इन का काढ़ा पीना चाहिये।
१५-ऊपर कहे हुए काढ़ों में से किसी एक क्वाथ (काढ़ों) को विधिपूर्वक
१-क्योंकि पसीने के द्वारा ज्वर की भीतरी गर्मी तथा उस का वेग बाहर निकल जाता है ।। २-क्योंकि शीतलजल दशाविशेष अथवा कारण के सिवाय ज्वर में अपथ्य (हानिकारक) माना गया है ॥ ३-ज्वर के जाने के बाद बूरी शक्ति के न आने तक भारी अन्न का खाना तथा परिश्रम के कार्य का करना तो निषिद्ध है हि, किन्तु इन के सिवाय-व्यायाम (दण्डकसरत), मैथुन, स्नान, इधर उधर विशेष डोलना फिरना, विशेष हवा का खाना तथा अधिक शीतल जल का सेवन, ये कार्य भी निषिद्ध हैं ॥ ४-अर्थात् देवदादि काथ ( देखो वातज्वर की चिकित्सा में दूसरी संख्या)॥ ५-यह काढ़ा दीपन और पाचन भी है ॥ ६-काढ़े की विधि पहिले तेरहवें प्रकरण में लिख चुके हैं ।
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