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चतुर्थ अध्याय । ५-अडूसे के पत्तों का रस दो रुपये भर लेकर उस में २॥ मासे मिश्री तथा २॥ मासे शहद को डाल कर पीना चाहिये।
सामान्यज्वर का वर्णन । __कारण तथा लक्षण-अनियमित खानपान, अजीर्ण, अचानक अतिशीत वा गर्मी का लगना, अतिवायु का लगना, रात्रि में जागरण और अतिश्रम, ये ही प्रायः सामान्यज्वर के कारण हैं, ऐसा ज्वर प्रायः ऋतु के बदलने से भी हो जाता है और उस की मुख्य ऋतु मार्च और अप्रेल मास अर्थात् वसन्तऋतु है तथा सितम्बर और अक्टूवर मास अर्थात् शरदऋतु है, शरदऋतु में प्रायः पित्त का बुखार होता है तथा वसन्तऋतु में प्रायः कफ का बुखार होता है, इन के सिवाय-जून और जुलाई महीने में भी अर्थात् बरसात की वातकोपवाली ऋतु में भी वायु के उपद्रवसहित ज्वर चढ़ आता है।
ऊपर जिन भिन्न २ दोषवाले ज्वरों का वर्णन किया है उन सबों की भी गिनती इस (सामान्यज्वर) में हो सकती है, इन ज्वरों में अन्तरिया ज्वर के समान चढ़ाव उतार नहीं रहता है किन्तु ये (सामान्यज्वर ) एक दो दिन आकर जल्दी ही उतर जाते हैं।
चिकित्सा-१-सामान्यज्वर के लिये प्रायः वही चिकित्सा हो सकती है जो कि भिन्न २ दोषवाले ज्वरों के लिये लिखी है।
२-इस के सिवाय-इस ज्वर के लिये सामान्यचिकित्सा तथा इस में रखने योग्य कुछ नियमों को लिखते हैं उन के अनुसार वर्ताव करना चाहिये।
३-जब तक ज्वर में किसी एक दोष का निश्चय न हो वहां तक विशेष चिकित्सा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सामान्यज्वर में विशेष चिकित्सा की कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु एकाध टंक (बख्त) लंघन करने से, आराम लेने
१-यह ओषधि अम्लपित्त तथा कामलासहित पित्तकफज्वर को भी शीघ्र ही दर कर देती है, इस ओषधि के विषय में किन्हीं आचार्यों की यह सम्मति है की अडूसे के पत्तों का रस (ऊपर लिखे अनुसार) दो तोले लेना चाहिये तथा उस में मिश्री और शहद को (प्रत्येक को) चार २ मासे डालना चाहिये ॥ २-अर्थात् इन कारणों से देश, काल और प्रकृति के अनुसार-एक वा दो दोष विकृत तथा कुपित होकर जठराग्नि को बाहर निकाल कर रसों के अनुगामी होकर ज्वर को उत्पन्न करते हैं ॥ ३-ऋतु के बदलने से ज्वर के आने का अनुभव तो प्रायः वर्तमान में प्रत्येक गृह में हो जाता है॥ ४-क्योंकि शरदऋतु में पित्त प्रकुपित होता है ॥ ५-पसीनों का न आना, सन्ताप ( देह और इन्द्रियों में सन्ताप), सर्व अंगों का पीड़ा करके रह जाना अथवा सब अंगों का स्तम्भित के समान (स्तब्ध सा) रह जाना, ये सब लक्षण ज्वरमात्र के साधारण हैं अर्थात् ज्वरमात्र में होते हैं इन के सिवाय शेष लक्षण दोषों के अनुसार पृथक् २ होते हैं । ६-सामान्यज्वर में दोष का निश्चय हुए विना विशेष चिकित्सा करने से कभी २ बड़ी भारी हानि भी हो जाती है अर्थात् दोष अधिक प्रकुपित हो कर तथा प्रबलरूप धारण कर रोगी के प्राणघातक हो जाते है ।
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