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चतुर्थ अध्याय ।
३०३.
समय में उत्तम प्रसन्न करनेवाली तथा प्रीतिकारक बातों को सुना ते जायें तो अच्छी बात है, यह भी स्मरण रहे कि भोजन करने में जो रस अधिक होता है उसी के तुल्य दूसरे रस भी बन जाते हैं, भोजन करते समय रोटी और रोट आदि कड़े पदार्थों को प्रथम घी से खाना चाहिये, पीछे दाल और शाक आदि के साथ खाना चाहिये, पित्त तथा वायु की प्रकृतिवाले पुरुष को मीठे पदार्थ भोजन के मध्य में खाने चाहियें, पीछे दाल भात आदि नरम पदार्थों को खाकर अन्त में दूध या छाछ आदि पतले पदार्थों को खाना चाहिये, मन्दाग्निवाले के उड़द आदि पदार्थ स्वभाव से ही भारी होते हैं तथा मूंग, मौठ, चना और अरहर, ये सब परिमाण से अधिक खाये जाने से भारी होते हैं, मिस्से की पूड़ी वा रोटी भी मन्दाभिवाले को बहुत हानि पहुँचाती है अर्थात् पेट में मल और वायु को बढ़ती है तथा इस के सिवाय भतीसार और संग्रहणी के भी होने में कोई आश्चर्य नहीं होता है, दलाहुआ अन्न बनाने के फेर फार से भारी हो जाता है, जैसे गेहूँ का दलिया रांधा जावे तो वह वैसा भारी नहीं होता है जैसी कि लापसी भारी अर्थात् गरिष्ठ होती है ।
१० - भोजन के समय में पहिले पानी के पीने से अग्नि मंद होजाती है, बीच २ में थोड़ा २ एकाध वार जल पीने से वह (जल) घी के समान फायदा करता है, भोजन के अन्त में आचमनमात्र ( तीन घूट ) जल पीना चाहिये, इस के बाद जब प्यास लगे तब जल पीना चाहिये, ऐसा करने से भोजन अच्छीतरह पच जाता है, भोजन के अन्त में अधिक जल पीने से अन्न हज़म नहीं होता है, भोजन को खूब पेटभर कर ( गलेतक ) कभी नहीं करना चाहिये, देखो! शार्ङ्गधर का कथन है कि जब भोजन अच्छी तरह से पचता है तब तो उस का रस हो जाता है तथा वह (रस) शरीर का पोषण करने में अमृत के तुल्य होता है और जब भोजन अच्छी तरह से नहीं पचता है तब रस न होकर आम हो जाता है और वह आम विष के तुल्य होता है इस लिये मनुष्यों को अग्नि के बल के अनुसार भोजन करना चाहिये ।
११ - बहुत से पदार्थ अत्यन्त गुणकारी हैं परन्तु दुसरी चीज के साथ मिलने से वे हानिकारी हो जाते हैं तथा उनकी हानि मनुष्यों को एकदम नहीं मालूम होती है किन्तु उस के बीज शरीर में छिपे हुए अवश्य रहते हैं, जैसे ग्रीष्म ऋतु में जंगल के अन्दर ज़मीन में देखा जावे तो कुछ भी नहीं दीखता है परन्तु जल के
१-देखो लिखा है कि-“अद्धमसणस्स सव्वं जणस्स कुज्जादवस्स दो भागे, वाउ पविआरणठ्ठा छज्जाय ऊणगं कुज्जा ॥ १ ॥ अर्थात् बुद्धि के द्वारा कल्पना कर के अपने उदर के छःभाग करने चाहियें, उन में से तीन भागों को तो अन्न से भरना चाहिये, दो भागों को पानी से भरना चाहिये तथा एक भाग को खाली रखना चाहिये कि जिस से उच्छ्वास और निःश्वास सुखपूर्वक आता जाता रहे || २-बहुत से लोग जीमण जूठण में दो दिन की कसर एक ही वख्त में निकाल लेते हैं, यह अविद्यादेवी की कृपा है, इस का फल उन को अवश्य ही मिलता है ॥
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