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तृतीय अध्याय ।
१३७ संगति में भी बालक न खेलने पावे इस की पूरी खबरदारी रखनी चाहिये, ज्यों २ बालक उम्रमें बड़ा होता जावे त्यों २ उस को नित्य सुबह और शाम को खुली इवामें नियमपूर्वक गेंद फेंकना, दौड़ना, चकरी, तीर फेंकना, खोदना, जोतना और काटना आदि मनपसन्द खेल खेलने देना चाहिये परन्तु जिस और जितने वेल से वह अत्यन्त थक जाये तथा शरीर भारी पड़ जावे वह और उतना खेल न खेलने देना चाहिये, जब कभी कॉलेरा ( हैजा) और ज्वर आदि रोग चल रहा हो तो उस समय में कसरत नहीं कराना चाहिये, कसरत करने के पीछे जब उस की थकावट कम हो जावे नव उसे खाने और पीने देना चाहिये, इस नियम के अनुसार पुत्र और पुत्री से कसरत कराते रहें ॥ १३-दाँतोंकी रक्षा-जब बालक सात आठ महीने का होता है तब उस के
दाँत निकलना प्रारम्भ होता है, कभी २ ऐसा भी होता है कि दाँत दो तीन मार विलम्ब से भी निकलते हैं परन्तु ऐसी दशा में बालक को ज्वर, वमन, खांसी, चूक झाड़ा और आंचकी आदि होने लगते हैं, जब बालकके दाँत निकलने लगते हैं उस समय उस का स्वभाव चिड़चिड़ा (चिढ़नेवाला) हो जाता है, उस को कहीं भी अच्छा नहीं लगता है. दांतों की जड़ों में खाज (खजली) चलती है, वार वार दूध पीने की इच्छा होती है, अंगुली वा अंगरे को मुख में डालता है क्योंकि उस से दाँतों की जड़ों के विसने से असा लगता है, इस समय पर बालक अन्य किसी वस्तु को मुख में न ढालने पावे इस का ख्याल रखना चाहिये, क्योंकि अन्य किसी वस्तु के मुख में न डालने की अपेक्षा तो अंगूठे को ही मुख में डालना ठीक है, परन्तु उस को हमेगा मुख में अंगूठा डालने की आदत न पड़ जावे इस का खयाल रखना चाहिये।
यदि दाँत निकलने के समय नित्य की अपेक्षा दो चार वार शौच अधिक लगे तो कोई चिन्ता की बात नहीं है, परन्तु यदि दो चार वार से भी अधिक शौच लगने लगे तो उसका उचित उपाय करना चाहिये, यदि बालक को ज्वर वा वमन अदि हो जाये तो चतुर वैद्य वा डाक्टर की सलाह लेकर उस का शीघ्रही उपाय करना चाहिये क्योंकि इस समय में उस की अच्छी तरह से हिफाज़त करनी चाहिये, यदि पहना हुआ कपड़ा लार से भीग जावे तो शीघ्र उस कपड़े को उतार कर दूसरा स्वच्छ कपड़ा पहना देना चाहिये क्योंकि ऐसा न करने से सर्दी लगजाती है, जब बालक बड़ा हो जाये तब दाँतों को बुश अथवा दाँतन के कुंचे घिसने की उस की आदत डालनी चाहिये, उसके दांतो में मैल नहीं रहने देना चाहिये किन्तु पानी के कुल्ले करा के उस के मुंह और दांतों को साफ कराते रहना चाहिये। १४-चरणरक्षा-(पैरों की हिफाज़त ) पैर ही तमाम शरीर की जड़ हैं इस.
लिये उन की रक्षा करना अति आवश्यक है, अतः ऐसा प्रबन्ध करते रहना
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