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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
रिक आदि बलों से हीन देखे जाते हैं, इसका कारण केवल यही है कि-उन की बाल्यावस्था पर पूरा ध्यान दिया जाता है अर्थात् नियमानुसार बाल्यावस्था में सन्तति का पालन पोषण होता है और उस को श्रेष्ठ शिक्षा आदि दी जाती है। __ यद्यपि पूर्व समय में इस आर्यावर्त देशमें भी माता पिता का ध्यान सन्तान को बलिष्ठ और सुयोग्य बनाने का पूरे तौर से था इसलिये यहां की आर्यसन्तति सब देशों की अपेक्षा सब बलों और सब गुणों में उन्नत थी और इसी लिये पूर्वसमयमें इस पवित्र भूमि में अनेक भारतरत्न हो चुके हैं, जिन के नाम और गुणों का स्मरण कर ही हम सब अपने को कृतार्थ मान रहे हैं तथा उन्हीं के गोत्र में उत्पन्न होने का हम सब अभिमान कर रहे हैं, परन्तु जबसे इस पवित्र आर्यभूमि में अविद्याने अपना घर बनाया तथा माता पिता का ध्यान अपनी सन्तति के पालन पोषण के नियमों से हीन हुआ अर्थात् माता पिता सन्तति के पालन पोषण आदि के नियमों से अनभिज्ञ हुए तब ही से आर्य जाति अत्यन्त अधोगति को पहुंचगई तथा इस पवित्र देश की वह दशा हो गई और हो रही है कि-जिसका वर्णन करने में अश्रुधारा बहने लगती है और लेखनी आगे बढ़ना नहीं चाहती है, यद्यपि अब कुछ लोगों का ध्यान इस ओर हुआ है और होता जाता है-जिससे इस देश में भी कहीं २ कुछ सुधार हुआ है और होता जाता है, इस से कुछ सन्तोष होता है क्योंकि-इस आर्यावर्त्तान्तर्गत कई देशों और नगरों में इस का कुछ आन्दो. लन हुआ है तथा सुधार के लिये भी यथाशक्य प्रयत्न किया जा रहा है, परन्तु हम को इस बात का बड़ा भारी शोक है कि-इस मारबाड़ देश में हमारे भाइयों का ध्यान अपनी सन्तति के सुधारका अभीतक तनिक भी नहीं उत्पन्न हुआ है और मारबाड़ी भाई अभीतक गहरी नींद में पड़े सो रहे हैं, यद्यपि यह हम मुक्तकण्ठसे कह सकते हैं कि पूर्व समय में अन्य देशों के समान इस देश में भी अपनी
१-हमनें अपने परम पूज्य स्वर्गवासी गुरु जी महाराज श्री विशनचन्दजी मुनि के श्रीमुख से कई वार इस बात को सुना था कि-पर्व समय में मारवाड़ देश में भी लोगों का ध्यान सन्तान के सुधार की ओर पूरा था, गुरुजी महाराज कहा करते थे कि “हम ने देखा है कि-मारवाड़ के अन्दर कुछ वर्ष पहिले धनाढ्य पुरुषो में सन्तानों के पालन और उनकी शिक्षा का क्रम इस समय की अपेक्षा लाख दर्जे अच्छा था अर्थात् उन के यहां सन्तानों के अंगरक्षक प्रायः कुलीन
और वृद्ध राजपुत्र रहते थे तथा सुशील गृहस्थों की स्त्रियां उन के घर के काम काज के लिये नौकर रहती थीं, उन धनाढ्य पुरुषों की स्त्रियां नित्य धर्मोपदेश सुना करती थीं, उन के यहां जब सन्तति होती थी तब उस का पालन अच्छे प्रकार से नियमानुसार स्त्रियां करती थीं, तथा उन बालकों को उक्त कुलीन राजपुत्र ही खिलाते थे, क्योंकि 'विनयो राजपुत्रेभ्यः', यह नीति का वाक्य है-अर्थात् राजपुत्रों से विनय का ग्रहण करना चाहिये, इस कथन के अनुकूल व्यवहार करने से ही उन की कुलीनता सिद्ध होती है अर्थात् बालकों को विनय और नमस्कारादि वे राजपुत्र ही सिखलाया करते थे; तथा जब बालक पांच वर्षका होता था तब उस को यति वा अन्य किसी पण्डित के पास विद्याभ्यास करने के लिये भेजना शुरू करते थे, क्योंकि पति वा पण्डितों ने बालकों को पढ़ाने की तथा सदाचार सिखलाने की रीति संक्षेप
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