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तृतीय अध्याय
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से अच्छी नियमित कर (बांध) रक्खी थी अर्थात् पहाड़ों से लेकर सब हिसाब किताब सामायिक प्रतिक्रमण आदि धर्मकृत्य और व्याकरण विषयक प्रथमसन्धि ( जो कि इसी ग्रन्थ में हमने शुद्ध लिखी है) और चाणक्य नीति आदि आवश्यक ग्रन्थ के बालकों को अर्थ सहित अच्छे प्रकार सेसिवला दिया करते थे, तथा उक्त ग्रन्थों का ठीक बोध हो जाने से वे गृहस्थों के सन्तान हिसार में; धर्मकृत्य में और नीति ज्ञान आदि विषयों में पक्के हो जाते थे, यह तो सर्वसाधारण के लिए उन विद्वानों ने क्रम बांध रक्खा था किन्तु जिस बालक की बुद्धि को वे ( विद्वान् ) अच्छी देखते थे तथा बालक के माता पिता की इच्छा विशेष पढ़ाने के लिये होती थी तो वे ( विद्वा-1 ) उस बालक को तो सर्व विषयों में पूरी शिक्षा देकर पूर्ण विद्वान् कर देते थे, इत्यादि, पाठकवण ! विचार कीजिये कि इस मारवाड़ देश में पूर्व काल में साधारण शिक्षा का कैसा अच्छा कम वँधा हुआ था, और केवल यही कारण है कि उक्त शिक्षाक्रम के प्रभाव से पूर्वकाल में इस मारवाड़ देश में भी अच्छे २ नामी और धर्मारमा पुरुष हो गये हैं, जिन में से कुछ सज्जनं के नाम यहां पर लिखे बिना लेखनी आगे नहीं बढ़ती है - इस लिये कुछ नामों का निदर्श करना ही पड़ता है, देखिये - पूर्वकाल में लखनऊ निवासी लाला गिरधारीलालजी तथा मकसून वादनिवासी ईश्वरदासजी और रायबहादुर मेघराजजी कोठारी बड़े नामी पुरुष हुए हैं और तीनों महोदयों का तो अभी थोड़े दिन पहले स्वर्गवास हुआ है, इन सज्जनों में एक दही भरी विशेषता यह थी कि इन को जैन सिद्धान्त गुरुगम शैली से पूर्णतया अभ्यस्त था जो कि इस समय जैन गृहस्थों में तो क्या किन्तु उपदेशकों में भी दो चार में ही देखा जाता है, इसी प्रकार मारवाड़ देशस्थ देशनोक के निवासी-सेठ श्री मगन मलजी झावक भी परमकीर्तिमान् तथा धर्मात्मा हो गये हैं । किन्तु यह तो हम बड़े हर्ष के साथ लिख सकते हैं कि हमारे जैन मतानुयायी अनेक स्थानों के रहनेवाले अनेक सुजन तो उत्तम शिक्षाको प्राप्तकर सदाचार में स्थित कर अपने नाम और कीर्ति को अचल कर गये हैं, जैसे कि रायपुर में गम्भीर मल जी
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गा, जगपुर में हीरालाल जी जहरी, राजनांदग्राम में आसकरणजी राज्यदीवान आदि अनेक आवक कुछ दिन पहिले विद्यमान थे तथा कुछ सुजन अब भी अनेक स्थानों में विद्यमान हैं परन्तु ग्रंथ के बढ़ जाने के भय से उन महोदयों के नाम अधिक नहीं लिख सकते हैं, इन महोदयों ने जो कुछ नाम; कीर्ति और यश पाया वह सब इन के सुयोग्य माता "पिता की श्रेष्ठ शिक्षा का ही प्रताप समझना चाहिये, देखिये वर्त्तमान में जैनसंघ के अन्दर - जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेस के जन्मदाता श्रीयुत गुलाबचन्दजी ढहा एम. ए. आदि तथा अन्य मत में भी इस समय पारसी दादाभाई नौरोजी, वाल गंगाधर तिलक, लाला लजपतराय, बालुसुरेंद्रनाथ, गोखले तर मदनमोहनजी मालवी आदि कई सुजन कैसे २ विद्वान परोपकारी और देशहितैषी पुरुष है और हो गये जिन को तमाम आर्यावर्त्तनिवासी जन भी मिल कर यदि करोड़ों धन्यवाद दें तो थोड़ा है, ये सब महोदय ऐसे परम सुयोग्य कैसे हो गये; इस प्रश्न का उत्तर केवल वही है के इन के सुयोग्य माता पिता की श्रेष्ठ शिक्षा का ही वह प्रताप है कि जिस से ये सुयोग्य और परम कीर्तिमान हो गये हैं, इन महोदयों ने कई वार अपने भाषणों में भी उक्त विषय वा कथन किया है कि सन्तान की बाल्यावस्था पर माता पिता को पूरा २ ध्यान देना चाहिये अर्थात् नियमानुसार वालक का पालन पोषण करना चाहिये तथा उस को उत्तम शिक्षा देनी चाहिये इत्यादि, जो लोग अखबारों को पढ़ते हैं उनको यह बात अच्छे प्रकार से विदित हैं, परन्तु व: शोक का विषय तो यह है कि बहुत से लोग ऐसे शिक्षाहीन और प्रमादयुक्त हैं कि वे अखवार को भी नहीं पढ़ते हैं जब यह दशा है तो भला उन को सत्पुरुषों के भाषणों का विषय ने ज्ञात हो सकता है ? वास्तव में ऐसे लोगों को मनुष्य नहीं किन्तु पशुवत् समझना चाहिये के जो ऐसे २ देशहितैषी महोदयों के सदाचार और योग्यता को तो क्या किन्तु उन के नाम से भी अनभिज्ञ हैं ! कहिये इस से बढ़कर और अन्धेर क्या होगा ? इस समय जब हम दृष्टि उठा कर अन्य देशों की तरफ देखते हैं तो ज्ञात होता है कि अन्य देशों में कुछ ११ जै० सं०
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