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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
चौथा प्रकरण |
बालरक्षण |
इस में कोई सन्देह नहीं है कि - सन्तान का उत्पन्न होना पूर्वकृत परम पुण्यकाही प्रताप है, जब पति और पत्नी अत्यन्त प्रीति के वशीभूत होते हैं तब उन के अन्तःकरण के तत्व की एक आनन्दमयी गांठ बँधती है, बस वही सन्तान है, वास्तव में सन्तान माता पिता के आनन्द और सुख का सागर है, उस में भी माता के प्रेम का तो एक दृढ़ बन्धन है, सन्तान ही सन्तोष और शान्ति का देनेवाला है, उसी के होने से यह संसार आनन्दमय लगता है, घर और कुटुम्ब शोभा को प्राप्त होता है, उसी से माता पिता के मुखपर सुख और आनन्द की आभा ( रोशनी ) झलकती है उसी की कोमल प्रभा से स्त्री पुरुष का जोड़ा रमणीक लगता है, तात्पर्य यह है कि - आरोग्यावस्था में तथा हर्ष के समय में बालक को दो घड़ी खिलाने तथा उस के साथ चित्त विनोद के आनन्द के समान इस संसार में दूसरा आनंन्द नहीं है, परन्तु स्मरण रहना चाहिये कि - आरोग्य, सुशील, सुबड़ और उत्तम सन्तान का होना केवल माता पिता के आरोग्य और सदाचरण पर ही निर्भर है अर्थात् यदि माता पिता अच्छे; सुशील; सुघड़ और नीरोग होंगे तो उन के सन्तान भी प्रायः वैसे ही होंगे, किन्तु यदि माता पिता अच्छे, सुशील, सुघड़ और नीरोग नहीं होंगे तो उन के सन्तान भी उक्त गुणों से युक्त नहीं होंगे ।
यह भी बात स्मरण रखने के योग्य है कि-बालक के जीवन तथा उस की अरोगता के स्थिर होने का मूल (जड़) केवल बाल्यावस्था है अर्थात् यदि सन्तान की बाल्यावस्था नियमानुसार व्यतीत होगी तो वह सदा नीरोग रहेगा तथा उस का जीवन भी सुख से कटेगा, परन्तु यह सब ही जानते हैं कि-सन्तान की बाल्यावस्था का मुख्य मूल और आधार केवल माता ही है, क्योंकि जो माता अपने बालक को अच्छी तरह संभाल के सन्मार्ग पर चलाती है उस का बालक नीरोग और सुखी रहता है, तथा जो माता अपने सन्तान की बाल्यावस्था पर ठीक ध्यान न देकर उस की संभाल नहीं करती है और न उस को सन्मार्ग पर चलाती है उसका सन्तान सदा रोगी रहता है और उसको सुख की प्राप्ति नहीं होती है,
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१ - इसी लिये कहा गया है कि - " आत्मा वै जायते पुत्रः" इत्यादि ॥ २ क्योंकि नीतिशास्त्रों में लिखा है कि- "अपुत्रस्य गृहं शून्यम्” अर्थात् पुत्ररहित पुरुष का घर शून्य है ।। ३ माता पिता और पुत्र का सम्बन्ध वास्तव में सरस बीज और वृक्ष के समान है, जैसे जो घुन आदि जन्तुओं से न खाया हुआ तथा सरस वीज होता है तो उससे सुन्दर, सरस और फूला फला हुआ वृक्ष उत्पन्न हो सकता हैं, इसी प्रकार से रोग आदि दूषणों से रहित तथा सदाचार आदि गुणों से युक्त माता पिता भी सुन्दर; बलिष्ठ; नीरोग और सदाचारवाले सन्तान को उत्पन्न कर सकते हैं ॥ ४-क्योंकि लिखा है कि- आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभिः समन्वितौ ॥ स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः ॥ १ ॥ अर्थात् जिस प्रकार के आहार आचार और चेष्टाओं से युक्त माता पिता परस्पर सङ्गम करते हैं उन का पुत्र मी वैसा ही होता है ॥ १ ॥
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