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द्वादशः १२] भाषाटीकासमेतम् ।
(१३३) (पताका) होवे, बंधुजनोंमें विवाद करता रहै, दुष्टता करे शत्रुसे तथा रोगसे पीडित रहे ॥८॥
भोजने तु जनो नित्यं क्षुधया परिपीडितः॥ दरिद्रा रोगसंतप्तः केतौ भ्रमति मेदिनीम् ॥९॥
केतु भोजनावस्थामें हो तो मनुष्य नित्य क्षुधा ( ख ) से पीडित रहै; दरिद्री तथा रोगसे संतप्त रहकर पृथ्वीमें भ्रमण करे९॥
नृत्यलिप्सागते केतौ व्याधिना विकलो भवेत् ॥ बुबुदाक्षो दुराधर्षों धूतॊनर्थकरो नरः॥१०॥
केतु नृत्यलिप्सा अवस्था में हो तो मनुष्य रोगसे सर्वदा विकल (दुःखी ) रहे, आँख उसकी देखनेमें कांपे (स्थिर दृष्टि न होवे) किसीसे हारे नहीं, धूर्त होवे और अनर्थके काम करे ॥ १० ॥
कौतुकी कौतुके केतौ नटवामारनिप्रियः॥ स्थानभ्रष्टो दुराचारो दरिद्रो भ्रमते महीम् ॥११॥
केतु कौतुकावस्थामें जिसका हो वह खेल तमासा करै नटनीके संगभोग (रति) को प्रिय माने, स्थानभ्रष्ट (घरसे निकल जावे) दुष्ट आचार करे, दरिद्री होकर पृथ्वीमें भ्रमण करे॥११॥ निद्रावस्थागते केतौ धनधान्यसुखं महत् ॥ नानागुणविनोदेन कालो गच्छति जन्मिनाम्॥१२॥ इति भावकुतूहले ग्रहाणां शयनाद्यवस्थाविचारे
द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥ केतु निद्रावस्थामें हो तो अन्न तथा धनका सुख मनुष्योंको बहुत होवै, अनेक प्रकार गुणोंकी चर्चासे खुसीसे दिन करें ॥१२॥ ... इति भावकुतूहले माहीधरीभाषाटीकायां ग्रहाणां शयनाद्यवस्था- .
विचारोऽध्यायः ॥ १२॥
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