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जगत्पूज्य श्रीविजयधर्मसूरिगुरुभ्यो नमः दो शब्द |
एक प्राचीन ऋषि का कथन है:
अस्मिन्नसारसंसारे निसर्गेणातिदारुणे । अवधिर्नहि दुःखानां यादसामिव वारिधौ ॥
समुद्र में जिस प्रकार जलजंतुओं की नहीं है, उसी प्रकार स्वभाव से ही अति इस संसार में दुःखों की सीमा नहीं है ।
कोई सीमा भयङ्कर ऐसे
सूक्ष्म दृष्टि से संसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं को भोगनेवाले राजा-महाराजा, सेठ साहूकार, गरीबतवंगर, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, यावत् सभी प्रकार के मनुष्यों की आंतर स्थिति देखी जाय तो उपर्युक्त बात की सत्यता ही नजर आवेगी । किसी को कुछ दुःख है, तो किसी को कुछ कोई किस चिंता के मारे चूर हो रहा है, तो कोई कुछ | इस प्रकार सारा संसार दुःखसे व्याप्त है । और इसी लिये हरएक मुख से यही शब्द निकलते हैंहरएक जगह यह चर्चा सुनाई देती है कि हमारी मुक्ति कैसे हो | हम इस संसार से कैसे छूटें ? यह भावना प्रायः
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