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योगियों के समान धर्मध्यान में निरन्तर लीन रहते हैं, उन्हीं को सत्पुरुष समझना चाहिये । ऐसे सत्पुरुषों के आचार सदाचार कहलाते हैं । और यही सदाचार परंपरा से मोक्ष का हेतु होता है । सदाचार से गृहस्थ धर्म की प्राप्ति होती है । यह गृहस्थ धर्म द्वादशत्रत रूप समझना चाहिये । इस धर्म को पालनेवाले ' मुनिधर्म' के इच्छुक होते हैं। इस प्रकार शास्त्र में प्रतिपादन किया गया है । अर्थात् अनुक्रम से मुनिधर्म की प्राप्ति होती है ।
यह मुनिधर्म रत्नत्रय स्वरूप है । उसको योगी योग रूप बताते हैं । यह योग मोक्ष का साक्षात् कारण है । अब रत्नत्रय क्या वस्तु है, इस पर विचार करें ।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र, इन वस्तुओं की शास्त्रकारोंने रत्नत्रयी संज्ञा रक्खी है। जिस प्रकार द्रव्य रत्नसे दरिद्रता दूर होती है, उसी प्रकार इन भाव रत्नों से जीव अनादिकाल की दरिद्रता से मुक्त होता है। वह इस प्रकार मुक्त होता है, किं पुनः दरिद्रता उस के पास आने ही नहीं पाती। इन तीन भाव रत्नों में से प्रथम ज्ञान नामक रत्न के स्वरूप पर दृष्टिपात करें ।
नय, प्रमाण, निक्षेप और स्याद्वादद्वारा यथावस्थित
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