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चार वर्गों में से एक भी वर्ग की आराधना करने के लिये असमर्थ ऐसे प्राणियों का उद्धार करना । कृतज्ञता अर्थात् किये हुए गुणों को समझना-उसका बदला देना, किन्तु गुण चोर नहीं होना। तथा दाक्षिण्य ( मिलनसारपना) रखना । यही सदाचार कहलाता है। संक्षेप में सदाचार का अर्थ इतना ही है कि-सज्जन पुरुषों का आचार। सामान्य पुरुषों की अपेक्षा से विलक्षण प्रकार के स्वभाववाले मनुष्य सत्पुरुष कहे जाते हैं । वृक्ष शीतलता के साथ ही साथ पत्थर मारनेवाले को फल भी देता है । वैसे ही सत्पुरुष होते हैं। जो लोग चंदन की तरह घिसने पर भी शीतलता को नहीं छोड़ते; छेदन-भेदन दशा में भी गन्ने ( शेलड़ी) की तरह मिष्टता का त्याग नहीं करते हैं; सुवर्ण के समान, कठिन ताप में भी अपने उच्च स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं; उपसर्ग अवस्था में मेरु के समान धैर्य रख कर निष्पकंप रहते हैं; राग का प्रसंग होते हुए भी शंख के समान निरागी रहते हैं;
और दुःखित अवस्था में सिंह की तरह घबराते नहीं है; जो कलिकाल में भी जैनमुनियों के समान सत्य को नहीं छोड़ते हैं । सुमटों की तरह कर्म रूपी महाशत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं; तपस्वियों की तरह परोपकार में शरीर की दरकार नहीं करते हैं और
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