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( १४) प्रथम ज्ञानावरणीय कर्म, अर्थात् ज्ञान को आच्छादित करनेवाला कर्म । इस कर्म का स्वभाव पट्टी के जैसा है । अथात् जैसे नेत्रों पर पट्टी बंधी होती है, तब प्राणी कोई भी वस्तु नहीं देख सकता है, उसी नरह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है । हम सब प्रत्यक्ष गीति से अनुभव करते हैं कि-कितनेक प्राणी परिश्रम कर के ज्ञान संपादन करते हैं । जब कि कई एक मनुष्य विना उद्योग के- खेल-कूदपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते हैं । और बहुत से अधिक श्रम करने पर भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । उन सब का मूल कारण ज्ञानावरणीय कर्म ही है । इस कर्म का जैसा क्षयोपशम होता जाता है, उसी प्रमाण में ज्ञान भी प्राप्त होता जाता है । और इसी कारण से ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद किये गये हैं । वे ये हैं:
(१) मतिज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय (४) मनःपर्यवज्ञानावरणीय और (५) केवलज्ञानावरणीय । जैसे जैसे आवरण दूर होने जाते हैं, वैसे वैसे मतिज्ञानादि निर्मल होते हैं। मतिज्ञान के अवान्तर भेद २८ हैं, श्रुतज्ञान के १४, अबविज्ञान के ६, मनःपर्यवज्ञान के २, और केवलज्ञान का
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