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अशरीरी, अनाहारी और अव्याबाध इत्यादि अनेक विशेषणयुक्त सच्चिदानन्दमय आत्मा है । परन्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से जन्म- जरा - मरणादि व्यपदेश का सेवन करता हुआ ऊपर बताये हुवे विशेषणो से विपरीत लक्षणवाला आत्मा माना जाता है । यह विपरीतता उसको अनादिकाल से लगे हुए कर्मों के कारण से हुई है। अर्थात् कर्मोंने आत्मा को, उसके ( आत्मा के ) मूलस्वरूप से भ्रष्ट किया है। उन कर्मों के मुख्य आठ भेद हैं । और सामान्य रीति से उत्तरभेद १५८ हैं । यदि उन कर्मों की वर्गणा आदि पर ध्यान देवेंगे, तो आत्मा के एक एक प्रदेश पर अनंत कर्मदल लगे हुए हैं, ऐसा प्रतीत होगा। उन कर्म वर्ग गाओं में निरंतर - प्रति समय राग-द्वेषादि की न्यूनाधिकता के प्रमाण में फेरफार होता ही रहता है । राग-द्वेष कर्म बन्धन का सबल कारण है । और उनसे छुटकारा पाना उसका नाम ही मुक्ति है । यह बात आगे कही जायगी । प्रस्तुत में तो उन कर्मों के नाम, उनका स्वभाव, और किस कारण से कौन से कर्म का संबंध आत्मा के साथ होता है, यही बात बताई जाती हैं।
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(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्क (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अंतराय ये मुख्य आठ कर्म हैं ।
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