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अचौर्य-अणुव्रत
८१ मिलावटका प्रश्न आजकी हृदयद्रावी समस्या बन चुकी है। इससे हम सहज ही अनुमान कर सकते हैं कि आजका मनुष्य मनुष्यतासे कितना अधिक नीचे खिसक गया है ; उसकी दृष्टिमें पैसा परमेश्वर है, मनुष्य मनुष्य भी नहीं है ! भारतवर्ष एक धर्म-प्रधान देश था और किसी दृष्टिसे आज भी है किन्तु भारतवासियोंके जीवन-स्तरको देखकर कहना पड़ता है कि सचमुच आज यह धर्मप्रधान देश नहीं रहा है। तभी तो आज दूधके नामसे पानी पाउडर, फेटा दूध, घीके नामसे वेजीटेबल घी, चर्बी, आटके नाम शकरकंदी व पत्थरका चूर्ण, सरसों-तेलके नामसे मंगफली, अलसी व सियाल काण्टाका तेल, मिठाई व आइसकण्डीके नामसे शुद्ध चीनीके बदले सेक्रीन् जो स्वास्थ्यके लिये अत्यन्त हानिकर मानी जाती है, चायके नामसे सेक्रीन और दूधका पाउडर, मक्खनके नामसे दहीके साथ वेजीटेबल घीको मथकर बनाया गया नकली मक्खन आदि सर्व साधारणको खाने-पीने व अन्य व्यवहारके लिये मिलते हैं।
यही हाल दवाइयोंके विषयमें है । अधिकांश वस्तुएँ सञ्चीकी शानशक्लमें नकली भी बन जाती हैं। मिलावटकी कोई मर्यादा ही नहीं है। शुद्ध खाद्यके अभावमें पहले तो अधिक संख्यामें बीमार होते हैं फिर स्वास्थ्य लाभके लिये दवाइयोंकी शरण लेते हैं । सोचा जा सकता है कि नकली और मिश्र दवाइयोंसे कितना अधिक अनिष्ट होता होगा। क्या ऐसी स्थितिमें स्वास्थ्यके बदले मृत्युके समीपनहीं चला जाता है मनुष्य' ? वंद्य कहता है-“दवा सेवन करते हो तब तक चीनी और चीनीकी वस्तु मात्र तुम्हारे लिये विष है, पूरा ध्यान रखना, शुद्ध मधुके साथ तुम्हें दवा लेनी है।" बेचारा बाजारमें किसी दूकानपर शुद्ध मधु लिखा विज्ञापन देखकर मधु खरीद लेता है। वास्तवमें वह मधु जिसके साथ वह दवा लेता है शुद्ध चीनी होती है जिसके परहेज स्वरूप वह दूध भी फीका पीता है। अस्तु, नैतिक पतनकी इस दयनीय दशा पर किसे तरस नहीं आती होगी जिसमें केवल अर्थार्जन ही जीवनका मुख्य तत्त्व रह गया है।
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