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सत्य-अणुव्रत
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व्यक्ति सब कुछ है, व्यक्ति-व्यक्तिसे ही समाज बनता है, यही मानते हुए अणुतीको चाहिए कि वह उक्त नियमकी मर्यादासे भी अधिक सत्यको प्रश्रय दे, चाहे ऐसा करते समय उसे कठिनाइयोंका सामना ही क्यों न करना पड़े । उसे तो लोगों की इस बद्धमूल धारणा को तोड़ना है कि व्यापार तो असत्यके आधार पर ही चल सकता है ।
२-समझ-बूझकर असत्य निर्णय- फैसला न देना ।
यह नियम न्यायाधीश तथा पंचोंसे सीधा सम्बन्ध रखता है । कोई अणुव्रती न्यायाधीश बना हो या कोई न्यायाधीश अणुव्रती बन गया है जैसे कि आज तक भी कई न्यायाधीश अणुव्रती बन चुके हैं तो उसके निर्णयों में अन्यायका कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता । एक अणुव्रती न्यायाधीश घूस लेकर निजीव्यक्तिका पक्षपात करके व किसी बड़े व्यक्ति व कर्मचारीसे प्रभावित होकर अन्यथा निर्णय नहीं दे सकता । यही गतिविधि अणुवतीकी तब होगी जब कि वह किसी मामलेको निपटानेके लिये पंच मान लिया जायेगा । हम कल्पना कर सकते हैं, उस राष्ट्रकी न्याय-व्यवस्था कितनी सुन्दर हो सकती है जिस राष्ट्रके न्याय विभाग में सारे कर्मचारी अणुप्रती ही हों ।
वास्तवमें प्रचलित न्याय व्यवस्था की कठिनाइयोंसे लोग पूर्णतः अब गये हैं। भले आदमी जहाँ तक हो सके न्यायालयोंका मुँह भी नहीं देखना चाहते हैं । इसका ही परिणाम है यद्यपि 'अणुव्रती - संघ' की स्थापना हुए अभी बहुत थोड़ा समय हुआ है तथापि आसपासके वातावरण में बहुतसे व्यक्ति यह चाहने लगे हैं और कइयोंने तो आचार्यवरके समक्ष इस प्रकारके प्रस्ताव भी रख दिये हैं कि अणुवतियों का एक 'आरवीट्र ेसन बोर्ड' ( पंचायत ) स्थापित होना चाहिए. जो सर्वसाधारण के पारम्परिक झगड़ोंका निपटारा करता रहे। हमारा विश्वास है, जनता अणुव्रतियों में अधिक से अधिक विश्वास करेगी और वह न्यायालयोंकी समस्त दुविधाओंसे वोमी ।
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