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[ ग ] इस पुस्तकको समाप्त किये लगभग वर्षसे भी अधिक समय हो चुका है, प्रारम्भ कालसे और भी अधिक । मेरी पुस्तकका वर्तमान आज भूत बन चुका है । पठन कालमें पाठक इसका ध्यान रखेंगे।
भाषाको यथासम्भव सरल रखनेका ही लक्ष रखा गया है तथापि संस्कृताभ्यासी की लेखनीसे क्वचित् कठिनताका अवतरण भी क्षम्य है।
नियमोंकी रचना नकारात्मक विधिसे है। अतः व्याख्या भी आदेशमूलक न होकर निषेधपरक ही है, इसलिए भी भाषा-प्रवाहमें क्वचित् अस्वाभाविकताका-सा भान भी हो सकता है । एक संयमीकी भाषा सर्वथा प्रवृत्तिसूचक हो भी नहीं सकती।
अणुव्रत व्यवस्थाकी मूल भित्ति ही निषेधवादपर आधारित है। वस्तुतः विधि की अपेक्षा निषेध ही अधिक विशुद्ध रहा करता है। 'सत्य बोलो' की अपेक्षा 'असत्य मत बोलो' यह अधिक विशुद्ध है । सत्य बोलनेके आदेशकको अपने वाक्यकी विशुद्धि के लिए यह कहना होगा 'सत्यं ब्रूयात्' 'प्रियं ब्रूयात् ' 'मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम्' किन्तु 'असत्य मत बोलो' इस भाषामें कोई अपवाद जोड़ देनेकी आवश्यकता नहीं रहती।
दूसरी बात विधिकी अपेक्षा निषेधमें अल्प बोलनेसे ही कार्य चलता है, जीवनमें यह करो वह करो की यदि हम तालिका बनाने बैठेगे तो सहस्रों नियमोंके निर्धारण की आवश्यकता होगी फिर भी तथ्य अधूरा रहेगा। यह मत करो वह मत करो इस पद्धतिके अनुसार जीवनका हेय तत्त्व सहज ही परे किया जा सकता है और उपादेय तत्त्व स्वयमेव सुस्थ रह जाता है। अस्तु, अणुव्रती-संघ जीवन शुद्धिका एक नकारात्मक मार्ग कहा जा सकता है।
आजकी समाज व्यवस्था प्रत्यक्ष प्रधान है। प्रत्यक्षमें यदि रोटी और कपड़ा ही समस्या रूप है तो आजके युग निर्माता रोटी और कपड़ेका ही दर्शन बना डालते हैं। अणुव्रत व्यवस्थामें क्षितिजके उस पारकी चिन्ताका ही मुख्य स्थान है।
भारतीय दार्शनिकोंने कभी भी प्रत्यक्षको ही सब कुछ नहीं माना। उनकी व्यवस्थामें जीवनका मुख्य लक्ष्य निःश्रेयस् प्राप्ति रहा और गौण फल प्रत्यक्ष समाज व्यवस्थाका। इसका यह तात्पर्य नहीं कि उन्होंने केवल परोक्षके लिए ही सोचा। तत्त्व यह है, उनके परोक्ष सिद्धिके साथ प्रत्यक्ष सिद्धिका द्वार हमेशा स्वयं खुला रहा है।
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