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अणुव्रत-दृष्टि हो तो व्यक्तिके सारे कष्ट गौण हो जाते हैं, और कलहके कारण
आत्माका अधःपतन होता है उससे भी व्यक्ति बच जाता है। . बहुधा जब कलहकी स्थिति बनती है तब दोनों पक्ष अपनेको निर्दोष और प्रतिपक्षको सदोष बताया करते हैं । किन्तु वास्तवमें कोई भी पक्ष नितान्त निर्दोष हो, ऐसे अवसर कम देखे जाते हैं। अधिकांशतः तो व्यक्ति अपनी ही प्रवृत्तियोंसे कलह पैदा करता है और दूसरोंके सर दोषारोपण करता हुआ अपने आप ही उसका परिणाम भोगता है रहता है, उदाहरणार्थ किसी पिताके कई पुत्र हैं, वह किसीको कम प्यार करता है और किसीकोअधिक या उसे किसीसे कम स्वार्थ है और किसीसे अधिक, परिणामतः उसका व्यवहार सबके प्रति समान नहीं रहता, वह किसीको उसके हिस्सेका धन भी नहीं देना चाहता और किसीको सब कुछ दे डालना चाहता है। बस यहीं आकर बड़े-से-बड़े कलहका बीजारोपण हो जाता है। पिता पुत्रको बुरा बताता है, पुत्र पिताको। नाना प्रकारके नतीजे निकलते हैं। अणुव्रतीको ऐसे दुर्व्यहारोंसे बचना होगा । दुर्व्यवहार और भी अनेकों प्रकारसे और अनेकों व्यक्तियों से हो सकते हैं। थोड़ेसे शब्दोंमें इसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। उसका स्पष्ट मानदण्ड यही होगा कि जो व्यवहार अनैतिक व असज्जनोचित हैं वे सब दुर्व्यवहार हैं। वैसे तो ऐसा व्यवहार अणुव्रती किसी अन्यके साथ भी नहीं कर सकता और उसके अवरोधक अन्यान्य नियम हैं ही, तथापि पारिवारिकता मनुष्यके जीवनका एक मुख्य अङ्ग है और वहाँ प्रतिदिन का पारस्परिक व्यवहार है इसलिये यह नियम तद्विषयक दुर्व्यवहारोंकी ओर ही विशेषतः संकेत करता है।
पुरुषोंकी तरह स्त्रियों में भी अनेकों अभद्र व्यवहार गृह वातावरणमें देखे जाते हैं। सास एक बहूको अधिक महत्व देती है एकको कम । गहना-कपड़ा एकसे छिपाती है, एकको देती है या बहुओंसे छिपाकर बेटीको देती है। इसी प्रकार देवरानी जेठानियोंमें काम-काज, गहनेकपड़ेको लेकर और खासकर बच्चोंको लेकर झगड़े होते ही रहते हैं।
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