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अणुव्रत-दृष्टि छाता वस्त्रोंमें नहीं माना गया है।
४-रेशमी व तत्प्रकार के हिंसाजन्य वस्त्रोंको पहनने और ओढ़ने के व्यवहार में न लाना। स्पष्टीकरण-व्रत-ग्रहण के पूर्वकालिक वस्त्रोंके विषय में उक्त दोनों
निमय बाधक नहीं हैं। इस निमय के मूलमें दो दृष्टिकोण हैं-अहिंसा और सादगी। यह सर्वविदित तत्त्व है कि रेशम कीड़ोंसे निष्पन्न होता है और अत्यन्त हिंसापरक है। यद्यपि रेशम का व्यवहार सभी सभ्य समाजों ने अपना रखा है और वह भी लम्बी अवधिसे तब भी समाजमें धनी-मानी एवं प्रतिष्ठित जन ही इसका अधिक प्रयोग करते हैं। रेशम का प्रयोग समाज में अनैतिक नहीं माना जाता प्रत्युत मांगलिक कार्योंमें उसका अधिक उपयोग होता देखा जाता है। अस्तु, आजतक की जो भी स्थिति रही हो अब भी हम इस विषय में कुछ भी सोचने के लिये स्वतन्त्र हैं। अहिंसा की दृष्टिसे यदि हम विचार करते हैं, हमें यह मानना होता है कि प्राणी जगत् के बीच मानव समाज सदा ही स्वार्थ परक रहा है, वह प्राणीवाद पर न चलकर मानववाद पर ही चल रहा है । वह पशुओं की रक्षा करता है अपने स्वार्थ के लिये, उनका बध करता है अपने स्वार्थके लिए, अपने जीवनको अपना जन्मसिद्ध अधिकार माननेवाला मानव आमिष आहार जैसी हिंसक वृत्तियोंको, जिनमें असंख्य स्थूल प्राणियोंका प्राणापहरण होता है, आवश्यकताकी मर्यादा में घसीट कर नैतिकताकी मुद्रासे अङ्कित कर देता है। यहाँ आकर तो उसकी स्वार्थपरताकी हद ही हो जाती है, जब कि वह अपने तुच्छतम स्वार्थके लिये भी अगणित जंगम प्राणियोंके विनाशको आवश्यक
और व्यावहारिक मान बैठता है। रेशमका भी एक ऐसा ही प्रसङ्ग है । रेशम मानव समाजके लिये जितना एक सुखद सामग्रीके रूपमें माना जा सकता है, उतना आवश्यक सामग्रीके रूपमें नहीं। यह ठीक है कि वह कोमलता, भव्यता आदिगुणोंसे वनोपयोगी सामग्रीमें सर्वोत्कृष्ट है,
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