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अहिंसा-अणुव्रत है वह किसी-न-किसी रूपमें उस हिंसासे सम्बन्धित है ही। इस नियमके अनुसार वस्त्र विशेषके लिये होनेवाली विश्वभरकी हिंसासे अणुव्रतीका सार्वाधिक सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है अर्थात् वह इस विषयमें केवल अपने देशमें होनेवाली हिंसासे ही सम्बन्धित रह जाता है। इस सम्बन्धमें अनेकों प्रश्न उठ सकते हैं जैसे-वस्त्र विशेषके लिये ही यह विधान क्यों, -विदेश-निर्मित अन्य वस्तुओं के उपयोग में व्यक्ति भी तजन्य हिंसा से सम्बन्धित होता ही है। इसका समुचित समाधान यही है, अवश्य हिंसा से सम्बन्ध तोड़ना अणुव्रती का परम लक्ष्य है किन्तु माननीय स्वाभाविक दुर्बलता के कारण व्यवहार्य और अव्यवहार्य का विवेक रखना ही पड़ता है। अतः नियम-निर्धारण के समय बहुत प्रकार की तर्क-वितर्क के बाद आज की स्थितिमें वस्त्र विशेष का नियम ही सुसाध्य माना गया। क्योंकि निकट भूतमें राष्ट्रीय भावना के अधिक प्रसारित होने के कारण विषय अधिक कष्टसाध्य नहीं रह गया था।
कुछ विचारकों का यह भी अनुरोध रहा कि अहिंसा के दृष्टिकोण को सुदृढ़ करने के लिये तो आवश्यक है अणुव्रती के लिए मिलमात्र के वस्त्र का निषेध हो। कम-से-कम हिंसापरक वस्त्र, खादी से बढ़कर दूसरा नहीं, अतः उक्त प्रकार का नियम होने से अतिरिक्त वस्त्र का स्वयमेव परिहार हो जायेगा।
सुझाव अवश्य ध्यान देने जैसा था, किन्तु अणुव्रतों का प्रसार जनजन में जिस व्यापकता से करने का लक्ष्य था, उसे ध्यान में रखते हुए यह नियम कठोरतम हो जाता। खादी मात्रमें सन्तोष कोई छोटा बड़ा वर्ग कर सकता है और वह भी अनुकूल स्थितियों में, किन्तु सर्व साधारण से यह आशा नहीं की जा सकती। दूसरे यन्त्र विकास की
ओर जिस प्रकार प्रत्येक देश अहंपूर्वक बढ़ने में व्यस्त हैं वह देखते हुए उक्त प्रकार का नियम निकट भविष्य में ही नितान्त अव्यवहार्य भी हो सकता था।
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