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अणुव्रत - दृष्टि
विश्व में फलाना चाहते हैं । जिसे सारे विश्वमें फैलाना है वह सदेह नहीं हो सकता, विदेह ही हो सकता है । अगर हम इसे सदेह बनायेंगे तो काम अवश्य होगा पर विश्वव्यापी नहीं होगा ।"
( सर्वोदय विचार पृष्ठ ३७ ) 'अणुव्रती संघ' की संघटना प्रथम विचार - सरणि पर ही अधिक अवलम्बित है । द्वितीय विचारसरणिमें अवश्य एक गम्भीर दृष्टि है, किन्तु व्यवहारिकताके साथ उसका बहुत थोड़ा सम्बन्ध है, ऐसा प्रतीत होता है । कम-से-कम अणुव्रतोंके विषय में तो यह सोचा ही जा सकता है कि बिना किसी संगठनकी भावना से यदि अणुव्रतोंकी नियमावली व्यक्ति-व्यक्तिके हाथों तक पहुँचा भी दी जाती तो उससे कुछ होनेवाला नहीं था । इने-गिने व्यक्ति अपनी श्रद्धा से यदि उन्हें अपने जीवन में उतार भी लेते तो उनसे किसी सामूहिक परिवर्तनको बल नहीं मिलता । बात रहती है व्यापकता की, वह भी केवल संगठन या असंगठन पर आधारित नहीं है । अन्य परिस्थितियोंका भी उसमें बहुत बड़ा हाथ रहता है । कितने व्यक्तियोंसे शुरू होने वाला साम्यवादी संगठन व्यापकताके दृष्टिकोणसे अद्वितीय संगठन बन चुका है। उसकी शक्ति के सामने सारा संसार सशंक है । महात्मा गांधीके विचारोंका प्रसार करने के लिए कोई संगठन नहीं है, किन्तु अपनी सहज शक्तिसे ही वे संसार के कोने २ में कोटि-कोटि जनताके हृदय पर प्रतिबिम्बित हो रहे हैं । अतः प्रसारके लिए संगठन या असंगठनको अधिक महत्व न भी दें तब भी यह तो मान ही लेना होगा कि संगठनके बिना कोई भी विचारशक्ति चमकती नहीं और न वह कार्य -साधक हो सकती है । गांधीवाद और मार्क्सवाद इसके लिये ज्वलन्त उदाहरण हैं । मार्क्सवाद एक संगठित बल है । वह संसारको एक निर्दिष्ट दिशाकी ओर ले जानेकी क्षमता रख सकता है, गांधीवाद जन-जन के हृदयमें उससे भी अधिक व्याप्त हो सकता है; पर संगठन-शक्ति के अभाव में संसार को अपनी गतिविधि से चलाने की क्षमता नहीं रख सकता ।
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