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विधान
किसी भी संस्था, समाज और राष्ट्र का प्राण उसके संगठन पर अवलम्बित है । संगठन में ही उसकी सफलता और असफलताका बीज
मन्त्र छिपा रहता है । 'अणुव्रती - संघ' का संगठन एक अपने ही प्रकारका है। आलोचकों के हृदय में अनेकों प्रश्न और जिज्ञासाएं एकाएक उठ सकती हैं जब तक वैधानिक धाराओंका मौलिक दृष्टिकोण उनके सामने न आये । अतः प्रथमतः विधान - रचना सम्बन्धी दृष्टिकोणको स्पष्ट कर देना आवश्यक है।
किसी भी विचारधाराके प्रसारके सम्बन्ध में दो दृष्टिकोण हमारे सामने आ रहे हैं - प्रथम, जिस विचारधाराका प्रसार करना हो उसके पीछे एक सुदृढ़ संगठन हो और उसके सहारे उस विचारका और उस संगठनका प्रसार किया जाये। तभी किसी विचार-सरणिका व्यापक होना सम्भव है ।
दूसरा दृष्टिकोण जो गांधीवादी विचारकोंका है, उसके अनुसार किसी सिद्धान्तको जीवित रखने के लिये या प्रसारित करने के लिये किसी संगठन या परम्पराको जन्म देना दोषपूर्ण है । संगठन सीमित रहता है, वह व्यापक नहीं हो सकता; परम्परा आगे चलकर सजीव नहीं रहती, वह एक निर्जीव सम्प्रदायका रूप ले लेती है । वह सम्प्रदाय आगे चलकर समाजके लिए विष साबित होता है ।
इसी दृष्टिकोणके अनुसार गांधी- विचार-धारा का प्रसार करने के लिये गांधीवादियोंने कोई तद्रुप संगठन नहीं बनाया। श्री विनोबा भावे मानते हैं, सर्वोदय समाज भी कोई संगठन नहीं है न उसके लिए तत्प्रकारके संगठनकी आवश्यकता है, जैसा कि उनकी निम्नोक्त पंक्तियों से स्पष्ट होता है - "सर्वोदय समाज अनियंत्रित विचार हैं जिन्हें हम
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