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आलोचनाके पथपर अणव्रती-संघ 'अणुव्रती-संघ' नैतिक उत्थानका एक जागरूक प्रयत्न है। देशविदेशके विभिन्न विचारकोंने इसे किस दृष्टिसे देखा है यह नीचे दिये गये विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंके समालोचना-पूर्ण उद्धरणोंसे अवगत करें।
हरिजन सेवक २० मई, १९४० सम्पादकीय :____ "जैनोंका तेरापंथी नामक सम्प्रदाय है। कहा जाता है कि जैन सिद्धान्तोंका अर्थ करनेमें उसका रुख उग्र है। उसके अनुयायियोंकी संख्या कुछ लाख है और उनमें से ज्यादातर राजस्थानके वैश्य हैं।
"आजकल उसके प्रभावशाली आचार्य श्री तुलसीजी हैं, आज व्यापारमें मैतिकताका जो हाल हो रहा है, उसमें सबसे ज्यादा हाथ व्यापारी समाजका है, इसलिये आचार्य श्री तुलसी कुछ दिनोंसे इस पतनके खिलाफ सामान्यतः सब लोगोंकी ओर खासकर अपने सम्प्रदाय के अनुयायियोंकी विवेक-बुद्धि जगानेमें लगे हुए हैं। ____ “जैन धर्मके सिद्धान्तोंकी विशुद्ध कल्पनाके अनुसार तो उस मार्गके
राहीको सांसारिक जीवनका पूरा त्याग करनेके लिये तैयार रहना • चाहिये। लेकिन, चूँकि अधिकांश लोगोंके लिये ऐसा करना सम्भव
नहीं है इसलिये पंथमें साधारण लोगोंको भी जगह देनेके विचारसे 'अणुव्रत' नामकी प्रथा जारी की गई है। अणुव्रतका अर्थ है, प्रत्येक व्रतका अणु लेकर सब व्रतोंका क्रमशः बढ़ता हुआ पालन। उदाहरणके लिये कोई आदमी जो अहिंसा और अपरिग्रहमें विश्वास तो रखता है, लेकिन उनके अनुसार चलनेकी ताकत अपनेमें नहीं पाता, इस पद्धतिका आश्रय लेकर किसी विशेष हिंसासे दूर रहने या एक हदके बाहर और किसी खास ढंगसे संग्रह न करनेका संकल्प करेगा और धीरे-धीरे अपने लक्ष्यकी ओर बढ़ेगा। ऐसे व्रत अणुव्रत कहलाते हैं। किसी समय इस प्रथाका जेनोंमें बड़ा प्रचार था।
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