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________________ Pravacanasāra in the three worlds can match the merit of this happiness; the worldly happiness, in comparison, is but misery. It is permanent and without impediments. This happiness is the fruit of purecognition (śuddhopayoga). Pure-cognition (śuddhopayoga) is thus worthy to be accepted and endured. सुविदिदपदत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥1-14॥ सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतपःसंयुतो विगतरागः । श्रमणः समसुखदुःखो भणितः शुद्धोपयोग इति ॥1-14॥ सामान्यार्थ - [श्रमणः शद्धोपयोगः इति भणितः] ऐसा परम मुनि शुद्धोपयोग भावस्वरूप परिणमता है, इस प्रकार वीतराग-देव ने कहा है। कैसा है वह श्रमण अर्थात् मुनि? [ सुविदितपदार्थसूत्रः] अच्छी रीति से जान लिये हैं जीवादि नवपदार्थ, तथा इन पदार्थों का कहने वाला सिद्धान्त जिसने। अर्थात् जिसने अपना और पर का भेद भले प्रकार जान लिया है, श्रद्वान किया है तथा निजस्वरूप में ही आचरण किया है, ऐसा मुनीश्वर ही शुद्धोपयोग वाला है। फिर कैसा है? [संयमतपःसंयुतः] पाँच इन्द्रिय तथा मन की अभिलाषा और छह काय के जीवों की हिंसा, इनसे आत्मा को रोककर अपने स्वरूप का आचरणरूप जो संयम, और बाह्य तथा अंतरंग बारह प्रकार के तप के बलकर - स्वरूप की स्थिरता के प्रकाश से ज्ञान का तपन (दैदीप्यमान होना) स्वरूप तप - इन दोनोंकर सहित है। फिर कैसा है? [विगतरागः ] दूर हुआ है परद्रव्य से रमण करनारूप परिणाम जिसका। फिर कैसा है? [ समसुखदुःखः ] समान हैं सुख और दुःख जिसके अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान की कला की सहायताकर इष्ट व अनिष्टरूप इन्द्रियों के विषयों में हर्ष तथा खेद नहीं करता है। ऐसा जो श्रमण है वही शुद्धोपयोगी कहा जाता है। ........................ 18
SR No.034445
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp Printers
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size16 MB
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